रविवार, 26 अप्रैल 2020

657. झरोखा

झरोखा

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समय का यह दौर   
जीवन की अहमियत 
जीवन की ज़रूरत सिखा रहा है। 
   
मुश्किल के इस रंगमहल में   
आशाओं का एक झरोखा 
जिसे पत्थर का महल बनाने में   
सदियों पहले बन्द किया था    
अब खोलने का वक़्त आ गया है   
ताकि एक बार फिर लौट सके 
सपनों का सुन्दर संसार   
सूरज की किरणों की बौछार   
बारिश की बूँदों की फुहार   
हो सके चाँदनी की आवाजाही   
आ सके हवा झूमती, नाचती, गाती। 
  
हम ताक सकें आसमान में चाँद-तारों की बैठक   
आकृतियाँ गढ़ती बादलों की जमात   
पक्षियों का कलरव   
रास्ते से गुज़रता इन्सानी रेला   
ज़रूरतों के सामानों का ठेला। 
  
हम सुन सकें हवाओं का नशीला राग   
बादलों की गड़गड़ाहट   
धूल-मिट्टी की थाप   
प्रार्थना की गुहार   
पड़ोसी की पुकार   
रँभाते मवेशियों की तान   
गोधूलि में पशुओं के खुरों और घंटियों की धुन   
हम मिला सकें कोयल के साथ कूउउ-कूउउ   
हम चिढ़ा सकें कौओं को काँव-काँव,   
हम कर सकें कोई ऐसी चित्रकारी   
जिसमें खूबसूरत नीला आसमान 
गेरुआ रंग धारण कर लेता है। 
   
पौधों की हरियाली में रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं   
मानो बच्चा लाड़-दुलार से माँ की गोद में जा सिमटता है   
हम बसा सकें सपनों के बड़े-बड़े चौबारे पर   
कोई अचम्भित करने वाली कामनाएँ। 
  
ओह! कितना कुछ था, जिसे खोया है हमने   
मन के झरोखों को बन्दकर   
कृत्रिमता से लिपटकर   
पत्थर के आशियाने में सिमटकर
अब समझ आ गया है   
जीवन की क्षणभंगुरता और क़ायनात की शिक्षा। 
   
खोल दो सबको   
आने दो झरोखे से वह सब   
जिसे हमने ख़ुद ही गँवाया था  
खोल दो झरोखा।   

- जेन्नी शबनम (26. 4. 2020) 
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