बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

183. देव

देव

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देव! देव! देव!
तुम कहाँ हो, क्यों चले गए?
एक क्षण को न ठिठके तुम्हारे पाँव
अबोध शिशु पर क्या ममत्व न उमड़ा
क्या इतनी भी सुध नहीं, कैसे रहेगी ये अपूर्ण नारी
कैसे जिएगी, कैसे सहन करेगी संताप
अपनी व्यथा किससे कहेगी
शिशु जब जागेगा, उसके प्रश्नों का क्या उत्तर देगी
वह तो फिर भी बहल जाएगा
अपने निर्जीव खिलौनों में रम जाएगा 

बताओ न देव!
क्या कमी थी मुझमें
किस धर्म का पालन न किया
स्त्री का हर धर्म निभाया
तुम्हारे वंश को भी बढ़ाया
फिर क्यों देव, यों छोड़ गए
अपनी व्यथा, अपनी पीड़ा किससे कहूँ देव?
बीती हर रात्रि की याद, क्या नाग-सी न डसेगी
जब तुम बिन ये अभागिन तड़पेगी?

जाना था, चले जाते
मैं राह नहीं रोकती देव
बस जगाकर व कहकर जाते
एक अन्तिम आलिंगन, एक अन्तिम प्रेम-शब्द
अन्तिम बार तुमको छू तो लेती
एक अन्तिम बार अर्धांगनी तुम्हारी, तुमसे लिपट तो लेती
उन क्षणों के साथ सम्पूर्ण जीवन सुख से जी लेती 

आह! देव!
एक बार कहकर तो देखते
साथ चल देती, छोड़ सब कुछ संग तुम्हारे
तुम्हारी ही तरह मैं भी बन जाती एक भिक्षुणी 

ओह! देव!
अब जो आओगे
मैं तुम्हारी प्रेम-प्रिया नहीं रहूँगी
न तुम आलिंगन करोगे
मैं अपनी पीड़ा में समाहित
एक अभागिन परित्यक्ता
तुम्हारे चरणों में लोटती
एक असहाय नारी 

संसार के लिए तुम बन जाओगे महान
लेकिन नहीं समझ पाए एक स्त्री की वेदना
चूक गए तुम पुरुष धर्म से
सुन रहे हो न!
देव! देव! देव!

-जेन्नी शबनम (20.10.2010)
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