परम्परा
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मैं उदासी नहीं चाहती थी
मैं तो खिलखिलाना चाहती थी
आज़ाद पंक्षियों-सा उड़ना चाहती थी
हर रोज़ नई धुन गुनगुनाना चाहती थी
और यह सब अनकहा भी न था
हर अरमान चादर-सा बिछा दिया था तुम्हारे सामने
तुमने सहमति भी जताई थी कि तुम साथ दोगे
लेकिन जाने यह क्योंकर हुआ
पर मैं वक़्त को दोष न दूँगी
वक़्त ने तो बहुत साथ दिया
पर तुम बिसुर गए सब
एक-एककर मेरे सपनों को
होलिका के साथ तुमने जला दिया
मुझसे कहा कि यह परम्परा है
मैं उदास हुई पर इंकार न किया
तुम्हारा कहा सिर माथे पर।
- जेन्नी शबनम (9.3.2019)
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