शनिवार, 24 अक्टूबर 2020

692. दड़बा

दड़बा 

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ऐ लड़कियों!   
तुम सब जाओ, अपने-अपने दड़बे में   
अपने-अपने परों को सँभालो   
एक दूसरे को अपनी-अपनी चोंच से लहूलुहान करो। 
  
कटना तो तुम सबको है, एक-न-एक दिन   
अपनों द्वारा या ग़ैरों द्वारा   
सीख लो लड़ना 
ख़ुद को बचाना 
दूसरों को मात देना   
तुम सीखो छल-प्रपंच और प्रहार-प्रतिघात   
तुम सीखो द्वंद्ववाद और द्वंद्वयुद्ध। 
  
दड़बे के बाहर की दुनिया 
क़ातिलों से भरी है   
जिनके पास शब्द के भाले हैं 
बोली की कटारें हैं   
जिनके देह और जिह्वा को 
तुम्हारे मांस और लहू की प्यास है   
पलक झपकते ही झपट ली जाओगी   
चीख भी न पाओगी।
   
दड़बे के भीतर, कितना भी लिख लो तुम   
बहादुरी की गाथाएँ, हौसलों की कथाएँ   
पर बाहर की दुनिया, जहाँ पग-पग पर भेड़िए हैं    
जो मानव-रूप धरकर, तुम्हारा इन्तिज़ार कर रहे हैं   
भेड़िए के सामने मेमना नहीं, ख़ुद भेड़िया बनना है   
टक्कर सामने से देना है, बराबरी पर देना है। 
  
ऐ लड़कियो!   
जीवन की रीत, जीवन का संगीत, जीवन का मन्त्र   
सब सीख लो तुम   
न जाने कब किस घड़ी 
समय तुमसे क्या माँगे।   

-जेन्नी शबनम (24.10.2020)
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