रविवार, 31 मार्च 2013

396. आदत

आदत

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सपने-अपने, ज़िन्दगी-बन्दगी   
धूप-छाँव, अँधेरे-उजाले   
सब के सब   
मेरी पहुँच से बहुत दूर   
सबको पकड़ने की कोशिश में   
ख़ुद को भी दाँव पर लगा दिया   
पर, मुँह चिढ़ाते हुए   
वे सभी, आसमान पर चढ़ बैठे 
मुझे दुत्कारते, मुझे ललकारते   
यूँ जैसे जंग जीत लिया हो   
कभी-कभी, धम्म से कूद   
वे मेरे आँगन में आ जाते   
मुझे नींद से जगा   
टूटे सपनों पर मिट्टी चढ़ा जाते   
कभी स्याही, कभी वेदना के रंग से   
कुछ सवाल लिख जाते   
जिनके जवाब मैंने लिख रखे हैं    
पर कह पाना   
जैसे, अँगारों पर से नंगे पाँव गुज़रना   
फिर भी मुस्कुराना   
अब आसमान तक का सफ़र   
मुमकिन तो नहीं   
आदत तो डालनी ही होगी   
एक-एक कर सब तो छूटते चले गए   
आख़िर   
किस-किस के बिना जीने की आदत डालूँ? 

- जेन्नी शबनम (31. 3. 2013) 
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बुधवार, 27 मार्च 2013

395. होली के रंग (8 हाइकु) पुस्तक 32, 33

होली के रंग

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1.
रंग में डूबी 
खेले होरी दुल्हिन  
नई नवेली। 

2. 
मन चितेरा 
अब तक न आया 
फगुआ बीता। 

3.
धरती रँगी 
सूरज नटखट 
गुलाल फेंके। 

4.
खिलखिलाया 
रंग और अबीर
वसंत आया। 

5.
उड़ती हवा 
बिखेरती अबीर 
रंग बिरंगा। 

6.
तन पे चढ़ा 
फागुनी रंग जब,
मन भी रँगा।  

7.
ओ मेरे पिया 
करके बरजोरी
रंग ही दिया। 

8.
फागुनी हवा 
उड़-उड़ बौराती
रंग रंगीली। 

- जेन्नी शबनम (27. 3. 2013)
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शनिवार, 23 मार्च 2013

394. आत्मा होती अमर (10 सेदोका)

आत्मा होती अमर (10 सेदोका)

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1.
छिड़ी है जंग 
सच झूठ के बीच 
किसकी होगी जीत ?
झूठ हारता  
भले देर-सबेर  
होता सच विजयी !  

2.
दिल बेजार 
रो-रो कर पूछता
क्यों बनी ये दुनिया ?
ऐसी दुनिया -
जहाँ नहीं अपना 
रोज़ तोड़े सपना !

3.
कुंठित सोच 
भयानक है रोग 
सर्वनाश की जड़,
खोखले होते 
मष्तिष्क के पुर्जे 
बदलाव कठिन !

4.
नश्वर नहीं
फिर भी है मरती 
टूट के बिखरती, 
हमारी आत्मा 
कहते धर्म-ज्ञानी -
आत्मा होती अमर !

5.
अपनी पीड़ा 
सदैव लगी छोटी,
गैरों की पीड़ा बड़ी,
खुद को भूल  
जी चाहता हर लूँ 
सारे जग की पीड़ा !

6.
फड़फड़ाते
पर कटे पक्षी-से
ख्वाहिशों के सम्बन्ध,
उड़ना चाहे  
पर उड़ न पाएँ  
नियत अनुबंध !

7.
नहीं विकल्प 
मंज़िल की डगर 
मगर लें संकल्प 
बहुत दूर 
विपरीत सफर 
न डिगेंगे कदम !

8.
एक पहेली 
बूझ-बूझ के हारी 
मगर अनजानी, 
ये जिंदगानी 
निरंतर चलती 
जैसे बहती नदी !

9.
संभावनाएँ
सफलता की सीढ़ी 
कई राह खोलतीं,
जीवित हों तो,
मरने मत देना 
संभावना जीवन ! 

10.
पुनरुद्धार 
अपनी सोच का हो
अपनी आत्मा का हो  
तभी तो होगा 
जीवन गतिमान 
मंज़िल भी आसान !

- जेन्नी शबनम (अगस्त 7, 2012)

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गुरुवार, 21 मार्च 2013

393. यह कविता है (क्षणिका)

यह कविता है

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मन की अनुभूति   
ज़रा-ज़रा जमती, ज़रा-ज़रा उगती
ज़रा-ज़रा सिमटती, ज़रा-ज़रा बिखरती  
मन की परछाई बन एक रूप है धरती
मन के व्याकरण से मन की स्लेट पर 
मन की खल्ली से जोड़-जोड़कर कुछ हर्फ़ है गढ़ती
नहीं मालूम इस अभिव्यक्ति की भाषा 
नहीं मालूम इसकी परिभाषा
सुना है, यह कविता है। 

- जेन्नी शबनम (21. 3. 2013)
(विश्व कविता दिवस पर)
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बुधवार, 20 मार्च 2013

392. स्त्री के बिना (स्त्री पर 7 हाइकु) पुस्तक 32

स्त्री के बिना 

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1.
अग्नि-परीक्षा  
अब और कितना 
देती रहे स्त्री। 

2.
नारी क्यों पापी 
महज़ देखने से 
पर-पुरुष। 

3.
परों को काटा 
पिंजड़े में जकड़ा 
मन न रुका। 

4.
स्त्री को मिलती 
मुट्ठी-मुट्ठी उपेक्षा 
जन्म लेते ही। 

5. 
घूरती रही 
ललचाई नज़रें, 
शर्म से गड़ी। 

6.
कुछ न पाया 
ख़ुद को भी गँवाया
लांछन पाया। 

7. 
नारी के बिना 
बसता अँधियारा
घर श्मशान। 

- जेन्नी शबनम (8. 3. 3013)
(अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस)
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सोमवार, 18 मार्च 2013

391. तुम्हें पसंद जो है (क्षणिका)

तुम्हें पसंद जो है

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तस्वीरों में तुम बड़े दिलकश लगते हो  
आँखों में शरारत, होंठों पर मुस्कुराहट
काली घनी लटें, कपाल को ज़रा-ज़रा-सी ढकती हुई
तस्वीर वही कहती है, जो मेरा मन चाहता है 
मेरे मनमाफ़िक तस्वीर खिंचवाना, तुम्हें पसंद जो है। 

- जेन्नी शबनम (18. 3. 2013)
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बुधवार, 13 मार्च 2013

390. क्यों नहीं आते

क्यों नहीं आते

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अकसर सोचती हूँ  
इतने भारी-भारी-से 
ख़याल क्यों आते हैं
जिनको पकड़ना 
मुमकिन नहीं होता 
और अगर पकड़ भी लूँ
तो उसके बोझ से 
मेरी साँसे घुटने लगती हैं  
हल्के-फुल्के तितली-से 
ख़याल क्यों नहीं आते 
जिन्हें जब चाहे उछलकर पकड़ लूँ 
भागे तो उसके पीछे दौड़ सकूँ
और लपककर मुट्ठी में भर लूँ 
इतने हल्के कि अपनी जेब में भर लूँ 
या फिर कहीं भी छुपा कर रख सकूँ।  

- जेन्नी शबनम (13. 3. 13)
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शुक्रवार, 8 मार्च 2013

389. अब न ऊ देवी है न कड़ाह

अब न ऊ देवी है न कड़ाह

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सरेह से अभी-अभी लौटे हैं   
गोड़ में कादो-माटी, अँचरा में लोर  
दउरी में दू ठो रोटी-नून-मर्चा 
जाने काहे आज मन नहीं किया 
कुछो खाने का
न कौनो से बतियाने का 
भोरे से मन बड़ा उदास है 
मालिक रहते त आज इ दिन देखना न पड़ता 
आसरा छूट जाए, त केहू न अपन 
दू बखत दू-दू गो रोटी आ दू गो लूगा (साड़ी)
इतनो कौनो से पार न लगा  
अपन जिनगी लुटा दिए
मालिक चले गए 
कूट पीस के बाल बच्चा पोसे, हाकिम बनाए
अब इ उजर लूगा 
आ भूईयाँ पर बईठ के खाने से 
सबका इज्जत जाता है 
अपन मड़इए ठीक
मालिक रहते त का मजाल जे कौनो आँख तरेरता
भोरे से अनाज उसीनाता 
आ दू सेर धान-कुटनी ले जाती
अब दू कौर के लिए
भोरे-भोरे, सरेहे-सरेहे... 
आह!
अब न ऊ देवी है न कड़ाह। 

- जेन्नी शबनम (8. 3. 13)
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर)
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बुधवार, 6 मार्च 2013

388. चाँद का रथ (7 हाइकु) पुस्तक 31, 32

चाँद का रथ

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1.
थी विशेषता  
जाने क्या-क्या मुझमें,
हूँ अब व्यर्थ। 

2.
सीले-सीले-से
गर हों अजनबी, 
होते हैं रिश्ते। 

3.
मन का द्वन्द्व 
भाँपना है कठिन
किसी और का। 

4.
हुई बावली 
सपनों में गुजरा 
चाँद का रथ। 

5. 
जन्म के रिश्ते 
सदा नहीं टिकते 
जग की रीत।  

6.
अनगढ़-से
कई-कई किस्से हैं 
साँसों के संग। 

7.
हाइकु ऐसे   
चंद लफ़्ज़ों में पूर्ण 
ज़िन्दगी जैसे। 

- जेन्नी शबनम (18. 2. 2013)
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रविवार, 3 मार्च 2013

387. ज़िन्दगी स्वाहा (क्षणिका)

ज़िन्दगी स्वाहा

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कब तक आख़िर मेढ़क बन कर रहें
आओ संग-संग,एक बड़ी छलाँग लगा ही लें 
पार कर गए तो मंज़िल 
गिर पड़े तो वही दुनिया, वही कुआँ, वही कुआँ के मेढ़क 
टर्र-टर्र करते एक दूसरे को ताकते, ज़िन्दगी स्वाहा। 

- जेन्नी शबनम (3. 3. 2013)
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शुक्रवार, 1 मार्च 2013

386. कतर दिया

कतर दिया

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क्या-क्या न कतर दिया   
कभी सपने   
कभी आवाज़   
कभी ज़िन्दगी   
और तुम हो कि   
किसी बात की कद्र ही नहीं करते   
हर दिन एक नए कलेवर के साथ   
एक नई शिकायत   
कभी मेरे चुप होने पर   
कभी चुप न होने पर   
कभी सपने देखने पर   
कभी सपने न देखने पर   
कभी तहज़ीब से ज़िन्दगी जीने पर   
कभी बेतरतीब ज़िन्दगी जीने पर   
हाँ, मालूम है   
सब कुछ कतर दिया   
पर तुम-सी बन न पाई   
तुम्हारी रंजिश बस यही है।    

- जेन्नी शबनम (1. 3. 2013) 
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