अपनों का अजनबी बनना
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समीप की दो समानान्तर राहें
कहीं-न-कहीं किसी मोड़ पर मिल जाती हैं
दो अजनबी साथ हों
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समीप की दो समानान्तर राहें
कहीं-न-कहीं किसी मोड़ पर मिल जाती हैं
दो अजनबी साथ हों
तो कभी-न-कभी अपने बन जाते हैं।
जब दो राह
दो अलग-अलग दिशाओं में चल पड़े फिर?
दो अपने साथ रहकर अजनबी बन जाएँ फिर?
सम्भावनाओं को नष्टकर नहीं मिलती कोई राह
कठिन नहीं होता, अजनबी का अपना बनना
कठिन होता है, अपनों का अजनबी बनना।
एक घर में दो अजनबी
नहीं होती महज़ एक पल की घटना
पलभर में अजनबी अपना बन जाता है
लेकिन अपनों का अजनबी बनना, धीमे-धीमे होता है।
व्यथा की छोटी-छोटी कहानी होती है
पल-पल में दूरी बढ़ती है
बेगानापन पनपता है
दो अपने साथ रहकर अजनबी बन जाएँ फिर?
सम्भावनाओं को नष्टकर नहीं मिलती कोई राह
कठिन नहीं होता, अजनबी का अपना बनना
कठिन होता है, अपनों का अजनबी बनना।
एक घर में दो अजनबी
नहीं होती महज़ एक पल की घटना
पलभर में अजनबी अपना बन जाता है
लेकिन अपनों का अजनबी बनना, धीमे-धीमे होता है।
व्यथा की छोटी-छोटी कहानी होती है
पल-पल में दूरी बढ़ती है
बेगानापन पनपता है
फ़िक्र मिट जाती है
कोई चाहत नहीं ठहरती है।
असम्भव हो जाता है
ऐसे अजनबी को अपना मानना।
-जेन्नी शबनम (1.12.2010)
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कोई चाहत नहीं ठहरती है।
असम्भव हो जाता है
ऐसे अजनबी को अपना मानना।
-जेन्नी शबनम (1.12.2010)
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