क्षणिकाएँ
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1.
समय चक्र
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समय चक्र और जीवन चक्र
दोनों घूम रहे हैं
उन्हें रोकने की कोशिशों में
मेरे दोनों हाथ छिल चुके हैं
मैं उन्हें न रोक पाई न साथ चल पाई
सदा नाकाम रही
उसी तरह जिस तरह
ख़ुद को अपने साथ रखने में नाकाम होती हूँ
मुझे नहीं पता कि मैं कहाँ होती हूँ।
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2.
परत
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मेरे मौसम में अब कोई नहीं
न मेरे मिज़ाज में कोई शामिल है
मेरे मन पर जो एक नरम परत लिपटा था
समय की ताप से पककर
वह अब लोहे का हो गया है।
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3..
यारी
यारी
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फूल तो सबको प्रिय, मैंने काँटों से यारी की
इस यारी में लाचारी थी, मेरी नहीं मनमानी थी
नसीब का लेखा-जोखा है, सब कुदरत का धोखा है
यह क़िस्मत की साज़िश है, नहीं कोई गुंजाइश है
काँटों की कलम से चाक-चाक, सीना मेरा छलनी है
दर्द भले पुराना है, लेकिन नयी-नयी मेरी कहानी है।
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4.
ज़ख़्म
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काँटों ने चुभाकर, जब भी ज़ख़्म दिए
एक संतोष-सा मन में ठहर गया
काँटों ने ज़ख़्म दिए हैं, तन छलनी हुआ तो क्या हुआ
गर फूलों ने ज़ख़्म दिया होता, तो मन छलनी होता
घाव तो भर जाएँगे
मन तो साबुत रहेगा।
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5.
पुल
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ढेरों इल्ज़ामों की तरह एक और
ढेरों कटु वचनों की तरह एक और
फ़र्क नहीं पड़ता अब दुर्भावनाओं से
न ही असर होता है, इल्ज़ामों की इन गिनतियों से
वह जो एक पुल था, हमारे दरम्यान
उसे वक़्त ने ढहा दिया है।
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6.
चेहरा
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चेहरे तो कई ओढ़े कई उतारे
कब कौन पहना अब याद नहीं
सबसे सच्चा वाला चेहरा
जो गुम हो चुका है, इन चेहरों की भीड़ में
अब कभी नहीं पहन पाऊँगी
पर एक टीस तो उठेगी
जब-जब आईना निहारूँगी।
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7.
बेजान सड़क
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बेजान सड़क में जैसे जान आ जाती है
मेरे पाँव में पहिया पहना देती है
फिर मुझे पहुँचा आती है वहाँ-वहाँ
जहाँ भीड़ में मैं अक्सर गुम हो जाती हूँ
फिर कोई अनजाना हाथ मुझे थाम लेता है
मगर कुछ क़दम के फ़ासले पर चलता है
सड़क को सब पता है
कहाँ मेरा सुकून है, कहाँ मेरी मंज़िल
और कहाँ थामने वाले हाथ।
मेरे पाँव में पहिया पहना देती है
फिर मुझे पहुँचा आती है वहाँ-वहाँ
जहाँ भीड़ में मैं अक्सर गुम हो जाती हूँ
फिर कोई अनजाना हाथ मुझे थाम लेता है
मगर कुछ क़दम के फ़ासले पर चलता है
सड़क को सब पता है
कहाँ मेरा सुकून है, कहाँ मेरी मंज़िल
और कहाँ थामने वाले हाथ।
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8.
तस्वीर
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काश कि अतीत विस्मृत हो जाए
ज़ेहन में तस्वीर कुछ ताज़ी आ जाए
दर्द की ढेरों तहरीर और रिसते ज़ख़्मों के धब्बे हैं
रिश्तों की ग़ुलामी और अनजीए पहलू की सरगोशी है
सब बिसराकर नई तस्वीर बसाना चाहती हूँ
कुछ नए फूल खिलाना चाहती हूँ
एक नई ज़िन्दगी जीना चाहती हूँ।
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9.
जुर्रत
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लुंज-पुंज से वक़्त में, ज़िन्दगी की अफरा-तफरी में
इश्क़ करने की मोहलत मिल गई
समय संजीदा हुआ
समय संजीदा हुआ
पूछा- ऐसी जुर्रत क्यों की?
अब इसका क्या जवाब
जुर्रत तो हो गई
अब हो गई तो हो गई।
अब इसका क्या जवाब
जुर्रत तो हो गई
अब हो गई तो हो गई।
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10.
दवा-दुआ
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उम्र के इस दौर में, तन्हाइयों के इस ठौर में
न दवा काम आती है न दुआ काम आती है
बस किसी अपने की यादें साथ रह जाती हैं
यूँ सच है खोखले रिश्तों के बेजान शहर में
कौन किसके वास्ते दुआ करे, करे तो क्यों करे
कोई किसी को अपना मान ले
आख़िरी पलों में बस इतना ही काफ़ी है।
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- जेन्नी शबनम (8. 4. 2020)
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