नज़रबंद
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ज़िन्दगी मुझसे भागती रही
मैं दौड़ती रही, पीछा करती रही
एक दिन आख़िर वो पकड़ में आई
ख़ुद ही जैसे मेरे घर में आई
भागने का सबब पूछा मैंने
झूठ बोल बहला दिया मुझे,
मैं अपनी खामी ढूँढती रही
आख़िर ऐसी क्या कमी थी
जो ज़िन्दगी मुझसे कह गई
मेरी सोच, मेरी उम्र या फिर जीने का शऊर
हाँ! भले मैं बेशऊरी
पर वक़्त से जो सीखा वैसे ही तो जिया मैंने
फिर अब?
आजीज आ गई ज़िन्दगी
एक दिन मुझे प्रेम से दुलारा, मेरे मन भर मुझे पुचकारा
हाथों में हाथ लिए मेरे, चल पड़ी झील किनारे
चाँद तारों की बात, फूल और ख़ुशबू थी साथ
भूला दिया मैंने उसका छल
आँखें मूँद काँधे पे उसके रख दिया सिर
मैं ज़िन्दगी के साथ थी
नहीं-नहीं मैं अपने साथ थी
फिर हौले से उसने मुझे झिंझोड़ा
मैंने आँख मूँदे मुस्कुरा कर पूछा-
बोलो ज़िन्दगी, अब तो सच बताओ
क्यों भागती रही तुम तमाम उम्र
मैं तुम्हारा पीछा करती रही ताउम्र
जब भी तुम पकड़ में आई
तुमने स्वप्नबाग दिखा मुझसे पीछा छुड़ाया,
फिर ज़िन्दगी ने मेरी आँखों में देखा
कहा कि मैं झील की सुन्दरता देखूँ
अपना रूप उसमें निहारूँ,
मैं पागल फिर से छली गई
आँखें खोल झील में ख़ुद को निहारा
मेरी ज़िन्दगी ने मुझे धकेल दिया
सदा के लिए उस गहरी झील में
बहुत प्रेम से बड़े धोखे से,
अब मैं झील में नज़रबंद हूँ
ज़िन्दगी की बेवफाई से रंज हूँ
अब न ज़िन्दगी का कारोबार होगा
न ज़िन्दगी से मुलाक़ात होगी
अब कौन सुनेगा मुझको कभी
न किसी से बात होगी।
- जेन्नी शबनम (1. 6. 2019)
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