इम्म्युन
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अब तक ग़ैरों से छुपती थी
अब ख़ुद से बचती हूँ
अपने वजूद को
अलमारी के उस दराज़ में रख दी हूँ
जहाँ गैरों का धन रखा होता है
चाहे सड़े या गले पर नज़र न आए
यूँ भी, मैं इम्म्युन हूँ
हमारी क़ौमें ऐसी ही जन्मती हैं
बिना सींचे पनपती हैं,
इतना ही काफ़ी है
मेरा 'मैं' दराज़ में महफ़ूज़ है,
चाहे सड़े या गले पर नज़र न आए
यूँ भी, मैं इम्म्युन हूँ
हमारी क़ौमें ऐसी ही जन्मती हैं
बिना सींचे पनपती हैं,
इतना ही काफ़ी है
मेरा 'मैं' दराज़ में महफ़ूज़ है,
ग़ैरों के वतन में
इतनी ज़मीन नहीं मिलती कि
'मैं हूँ' ये सोच सकूँ
और ख़ुद को
इतनी ज़मीन नहीं मिलती कि
'मैं हूँ' ये सोच सकूँ
और ख़ुद को
अपने आईने में देख सकूँ।
- जेन्नी शबनम (7. 7. 2014)
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