दुःखहारिणी
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जीवन के तार को साधते-साधते
मन-रूपी उँगलियाँ छिल गई हैं जहाँ से रिसता हुआ रक्त
बूँद-बूँद धरती में समा रहा है
मेरी सारी वेदनाएँ सोखकर
धरती पुनर्जीवन का रहस्य बताती है
हारकर जीतने का मन्त्र सुनाती है।
हारकर जीतने का मन्त्र सुनाती है।
जानती हूँ
सम्भावनाएँ मिट चुकी हैं
सारे तर्क व्यर्थ ठहराए जा चुके हैं
पर कहीं-न-कहीं जीवन का कोई सिरा
जो धरती के गर्भ में समाया हुआ है
मेरी उँगलियों को थाम रखा है
सम्भावनाएँ मिट चुकी हैं
सारे तर्क व्यर्थ ठहराए जा चुके हैं
पर कहीं-न-कहीं जीवन का कोई सिरा
जो धरती के गर्भ में समाया हुआ है
मेरी उँगलियों को थाम रखा है
हर बार अन्तिम परिणाम आने से ठीक पहले
यह धरती मुझे झकझोर देती है
यथासम्भव चेष्टा करती हूँ
यह धरती मुझे झकझोर देती है
मेरी चेतना जागृत कर देती है
और मुझमें प्राण भर देती है।
और मुझमें प्राण भर देती है।
यथासम्भव चेष्टा करती हूँ
जीवन प्रवाहमय रहे
भले पीड़ा से मन टूट जाए
भले पीड़ा से मन टूट जाए
पर कोई जान न पाए
क्योंकि धरती जो मेरी दुःखहारणी है
मेरे साथ है।
-जेन्नी शबनम (1.5.2015)
(मज़दूर दिवस)
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