गुरुवार, 19 नवंबर 2009

99. वक़्त को इतनी बेसब्री क्यों / waqt ko itni besabri kyon

वक़्त को इतनी बेसब्री क्यों

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कुछ लम्हे चुराकर दे दो न
ठहर ज़रा हम भी जी लें न,
जब देखो छीन जाता हमसे
वक़्त की इतनी सख़्ती क्यों?

अब तो सहर की आस नहीं
अशक्त तन-मन में जान नहीं,
कब किस ओर निकल जाए
वक़्त की इतनी आवारगी क्यों?

चाँदनी ने रंग बिखेरे गेसुओं पर
इक लकीर सी उभरी माथे पर,
दिन गुज़रा भी नहीं रात हुई
वक़्त को इतनी जल्दी क्यों?

'शब' को एक सौग़ात दे दो
मोहलत की एक रात दे दो,
वक़्त को ज़रा समझाओ न
वक़्त को इतनी बेसब्री क्यों?

- जेन्नी शबनम (16. 11. 2009)
(अपने जन्मदिन पर)
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waqt ko itni besabri kyon

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kuchh lamhe churaa kar de do na
thahar zaraa hum bhi ji lein na,
jab dekho chheen jaata humse
waqt ki itni sakhti kyon?

ab to sahar ki aas nahin
ashakt tan-man mein jaan nahin,
kab kis ore nikal jaaye
waqt ki itni aawargi kyon?

chaandni ne rang bikhere gesuon par
ik lakeer see ubhari maathey par,
din gujraa bhi nahin raat hui
waqt ko itni jaldi kyon?

'shab' ko ek saugaat de do
mohlat ki ek raat de do,
waqt ko zara samjhaao na
waqt ko itni besabri kyon ?

- jenny shabnam (16. 11. 2009)
(apne janmdin par)
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