शनिवार, 17 मार्च 2012

332. वक़्त की आख़िरी गठरी (क्षणिका)

वक़्त की आख़िरी गठरी

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लफ़्ज़ की सरगोशी, जिस्म की मदहोशी
यूँ जैसे 
साँसों की रफ़्तार घटती रही
एक-एक को चुनकर, हर एक को तोड़ती रही
सपनों की गिनती फिर भी न ख़त्म हुई
ज़िद की बात नहीं, न चाहतों की बात है
पहरों में घिरी रही 'शब' की हर पहर-घड़ी
मलाल कुछ इस क़दर जैसे
मुट्ठी में कसती गई वक़्त की आख़िरी गठरी। 

- जेन्नी शबनम (16. 3. 2012)
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