शनिवार, 17 दिसंबर 2011

306. अब डूबने को है

अब डूबने को है

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बहाने नहीं हैं पलायन के
न कोई अफ़साने हैं मेरे
न कोई ऐसा सच, जिससे तुम भागते हो
और सोचते हो कि मुझे तोड़ देगा। 

सारे सच 
जो अग्नि से प्रज्वलित होकर निखरे हैं
तुम जानते हो दोस्त! वह मैंने ही जलाए थे
पल-पल की बातें जब भारी पड़ गईं 
एक दोने में लपेटकर नदी में बहा दिया 
फिर वह दोना एक मछुआरे ने मुझ तक पहुँचा दिया
क्योंकि उस पर मैंने अपने नाम लिख दिए थे
ताकि जब जल में समाए 
अपने साथ मुझे भी समाहित कर ले। 

अब उस दोने को जला रही हूँ
सारे सच पक-पककर गाढे रंग के हो गए हैं
वह देखो मेरे दोस्त! सूरज-सा तपता मेरा सच
अब डूबने को है। 

- जेन्नी शबनम (17.11.2011)
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