शनिवार, 30 अप्रैल 2011

237. आग सुलग रही है

आग सुलग रही है

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एक आग सुलग रही है सदियों से
मन पर बोझ है, सीने में कसक उठती है 
सिसक-सिसककर जीती है 
पर ख़त्म नहीं होती ज़िन्दगी। 

अब आग को हवा मिल रही है
सब भस्म कर देने का मन है
पर ऐसी चाह तो न थी, जो अब दिख रही है 
जीतने का मन था, किसी की हार कब चाही थी 
सीने की जलन का क्या करूँ
क्या इनके साथ होकर शान्त कर लूँ ख़ुद को?

सब तरफ़ आग-आग
सब तरफ हिन्सा-हिन्सा 
कैसे हो जाऊँ इनके साथ?
वे सभी खड़े हैं, साथ देने के लिए
मेरे ज़ख़्म को हवा देने के लिए
अपने लिए दूसरों का हक़ छीन लेने के लिए
नहीं ख़त्म होगी सदियों की पीड़ा
नहीं चल सकती मैं इनके साथ। 

बात तो फिर वही रह गई
अब कोई और शोषित है, पहले कोई और था
एक आग अब उधर भी सुलग रही है 
जाने अब क्या होगा?

- जेन्नी शबनम (19.4.2011)
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गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

236. लम्बी सदी बीत रही है (क्षणिका)

लम्बी सदी बीत रही है

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सीली-सीली-सी पत्तियाँ सुलग रही हैं
जैसे दर्द की एक लम्बी सदी धीरे-धीरे गुज़र रही है
तपन जेठ की झुलसाती गर्म हवाएँ
फिर भी पत्तियाँ सील गईं
ज़िन्दगी भी ऐसे ही सील गई
धीरे-धीरे सुलगते-सुलगते ज़िन्दगी अब राख बन रही है
दर्द की एक लम्बी सदी जैसे बीत रही है

- जेन्नी शबनम (27. 4. 2011)
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सोमवार, 25 अप्रैल 2011

235. सब ख़ामोश हैं

सब ख़ामोश हैं

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बातें करते-करते
तुम मंदिर तक पहुँच गए
मैं तुम्हें देखती रही
मेरे लिए तुम्हारी आँखों में
क्या जन्म ले रहा है
यह तो नहीं मालूम
तुम क्या सोच रहे थे
पर मेरी ज़िद कि मुझे देखो
सिर्फ़ मुझसे बातें करो
तुम्हें नहीं पता
उस दिन मैंने क्या हार दिया
तुम तक पहुँचती राह को
छोड़ दिया
ईश्वर ने कहा था तुमसे
कि मुझको माँग लो,
मैंने उसकी बातें तुमको सुनने न दी
मेरी ज़िद कि सिर्फ़ मेरी सुनो
ईश्वर ने मुझे कहा -
आज वक़्त है
तुममें अपना प्रेम भर दूँ,
मैंने अनसुना कर दिया
मेरी ज़िद थी कि सिर्फ़ तुमको सुनूँ
जाने क्यों मन में यकीन था कि
तुममें मेरा प्रेम भरा हुआ है
अब तो जो है बस
मेरी असफल कोशिश
ख़ुद पर क्रोध भी है और क्षोभ भी
ये मैंने क्या कर लिया
तुम तक जाने का अंतिम रास्ता
ख़ुद ही बंद कर दिया
सच है प्रेम ऐसे नहीं होता
यह सब तक़दीर की बातें हैं
और अपनी तक़दीर उस दिन
मैं मंदिर में तोड़ आई
तुम भी हो मंदिर भी और ईश्वर भी
पर अब हम सब ख़ामोश हैं

- जेन्नी शबनम (19. 4. 2011)
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रविवार, 24 अप्रैल 2011

234. चाँद के होठों की कशिश

चाँद के होठों की कशिश

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चाँद के होठों में जाने क्या कशिश है
सम्मोहित हो जाता है मन
एक जादू-सा असर है
मचल जाता है मन
अँधेरी रात में हौले-हौले
क़दम-क़दम चलते हुए
चाँदनी रात में चुपचाप निहारते हुए
जाने कैसा तूफ़ान आ जाता है
समुद्र में ज्वार भाटा उठता है जैसे
ऐसा ही कुछ-कुछ हो जाता है मन 
कहते हैं चाँद की तासीर ठंडी होती है
फिर कहाँ से आती है इतनी ऊष्णता
जो बदन को धीमे-धीमे
पिघलाती है
फिर भी सुकून पाता है मन
उसकी चाँदनी या चुप्पी
जाने कैसे मन में समाती है
नहीं मालूम ज़िन्दगी मिलती है
या कहीं कुछ भस्म होता है
फिर भी चाँद के संग
घुल जाना चाहता है मन

- जेन्नी शबनम (23. 4. 2011)
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शनिवार, 23 अप्रैल 2011

233. हथेली ख़ाली है

हथेली ख़ाली है

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मेरी मुट्ठी से आज फिर कुछ गिर पड़ा 
लगता है शायद यह अन्तिम बार है   
अब कुछ नहीं बचा है गिरने को 
मेरी हथेली ख़ाली पड़ चुकी है

अचरज नहीं पर कसक है 
कहीं गहरे में काँटों की चुभन है  
क़तरा-क़तरा वक़्त है, जो गिर पड़ा 
या कोई अल्फ़ाज़, जो दबे थे मेरे सीने में 
और मैंने जतन से छुपा लिए थे मुट्ठी में 
कभी तुम दिखो, तो तुमको सौंप दूँ  

पर अब यह मुमकिन नहीं 
वक़्त के बदलाव ने बहुत कुछ बदल दिया है 
अच्छा ही हुआ, जो मेरी हथेली ख़ाली हो चुकी है 
अब खोने को कुछ नहीं रहा  

- जेन्नी शबनम (18.4.2011)
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बुधवार, 13 अप्रैल 2011

232. ज़िद्दी हूँ

ज़िद्दी हूँ

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जाने किस सफ़र पर ज़िन्दगी चल पड़ी है
न मक़सद का पता न मंज़िल का ठिकाना है
अब तो रास्ते भी याद नहीं
किधर से आई थी किधर जाना है
बहुत दूर निकल गए तुम भी
इतना कि मेरी पुकार भी नहीं पहुँचती 
इस सच से वाक़िफ़ हूँ और समझती भी हूँ
साथ चलने के लिए तुम साथ चले ही कब थे
मान रखा मेरी ज़िद का तुमने
और कुछ दूर चल दिए थे साथ मेरे
क्या मानूँ?
तुम्हारा एहसान या फिर
महज़ मेरे लिए ज़रा-सी पीड़ा
नहीं-नहीं, कुछ नहीं
ऐसा कुछ न समझना
तुम्हारा एहसान मुझे दर्द देता है
प्रेम के बिना सफ़र नहीं गुज़रता है
तुम भी जानते हो और मैं भी
मेरे रास्ते तुमसे होकर ही गुज़रेंगे
भले रास्ते न मिले
या तुम अपना रास्ता बदल लो
पर मेरे इंतज़ार की इंतिहा देखना
मेरी ज़िद भी और मेरा जुनून भी
इंतज़ार रहेगा
एक बार फिर से
पूरे होशो हवास में तुम साथ चलो
सिर्फ़ मेरे साथ चलो 
जानती हूँ
वक़्त के साथ मैं भी अतीत हो जाऊँगी
या फिर वह
जिसे याद करना कोई मज़बूरी हो
धूल जमी तो होगी 
पर उन्हीं नज़रों से तुमको देखती रहूँगी
जिससे बचने के लिए
तुम्हारे सारे प्रयास अकसर विफल हो जाते रहे हैं 
उस एक पल में
जाने कितने सवाल उठेंगे तुममें
जब अतीत की यादें
तुम्हें कटघरे में खड़ा कर देंगी
कुसूर पूछेगी मेरा
और तुम बेशब्द ख़ुद से ही उलझते हुए
सूनी निगाहों से सोचोगे -
काश! वो वक़्त वापस आ जाता
एक बार फिर से सफ़र में मेरे साथ होती तुम
और हम एक ही सफ़र पर चलते
मंज़िल भी एक और रास्ते भी एक
जानते हो न
बीता वक़्त वापस नहीं आता
मुझे नहीं मालूम मेरी वापसी होगी या नहीं
या तुमसे कभी मिलूँगी या नहीं
पर इतना जानती हूँ
मैं बहुत ज़िद्दी हूँ!

- जेन्नी शबनम (13. 4. 2011)
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मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

231. ज़िन्दगी से छीना-झपटी ज़ारी है (तुकांत)

ज़िन्दगी से छीना-झपटी ज़ारी है

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पहली साँस से अंतिम साँस तक का, सफ़र जारी है
कौन मिला कौन बिछड़ा, ज़ेहन में तस्वीर सारी है

सपनों का पलना और फिर टूटना, ज़ख़्म तो है बहुत
किससे करूँ गिला शिकवा, सच मेरी तक़दीर हारी है

एक रोज़ मिला था कोई मुसाफ़िर, राहों में तन्हा-तन्हा
साथ चले कुछ रोज़ फिर कह गया, मेरी हर शय ख़ारी है 

नहीं इस मर्ज़ का इलाज़, बेकार गई दुआ तीमारदारी
थक गए सभी, अब कहते कि अल्लाह की वो प्यारी है 

ख़ुद से एक जंग छिड़ी, तय है कि फ़ैसला क्या होना
लहूलुहान फिर भी, ज़िन्दगी से छीना-झपटी ज़ारी है 

नहीं रुकती दुनिया वास्ते किसी के, सच मालूम है मुझे
शायद तक़दीर के खेल में हारना, मेरी ही सभी पारी है

जीने की ख़्वाहिश मिटती नहीं, नए ख्व़ाब हूँ सजाती
ज़ाहिर ही है हर पल होती, ज़िन्दगी से मारा-मारी है

इस जहाँ को कभी हुआ नहीं, उस जहाँ को हो दरकार
हर नाते तोड़ रही 'शब', यहाँ से जाने की पूरी तैयारी है

- जेन्नी शबनम (16. 11. 2010)
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रविवार, 10 अप्रैल 2011

230. सपने (तुकांत)

सपने

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उम्मीद के सपने बार-बार आते हैं
न चाहें फिर भी आस जगाते हैं

चाह वही अभिलाषा भी वही
सपने हर बार बिखर जाते हैं

उल्लसित होता है मन हर सुबह
साँझ ढले टूटे सपने डराते हैं

आओ देखें कुछ ऐसे सपने
जागती आँखों को जो सुहाते हैं

'शब' कैसे रोके रोज़ आने से
सपने आँखों को बहुत भाते हैं

- जेन्नी शबनम (8. 4. 2011)
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शनिवार, 9 अप्रैल 2011

229. अजनबियों-सा सलाम (क्षणिका)

अजनबियों-सा सलाम

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मुलाक़ात भी होगी
नज़रों से एहतराम भी होगा
दो अजनबियों-सा कोई सलाम तो होगा

- जेन्नी शबनम (6. 4. 2011)
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सोमवार, 4 अप्रैल 2011

228. हाथ और हथियार

हाथ और हथियार

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भूख से कुलबुलाता पेट
हाथ और हथियार की भाषा भूल गया
नहीं पता किससे छीने
अपना ठौर-ठिकाना भूल गया

मर गया था छोटका जब
मार दिया था ख़ुद को तब
अब तो बस बारी है
पेट की ख़ातिर आग लगानी है

नहीं चाहिए कोई घर
जहाँ पल-पल जीना था दूभर
अब ख़ून से खेलेगा
अब किसी का छोटका नहीं मरेगा

बड़का अब भरपेट खाएगा
जोरू का बदन कोई नोच न पाएगा
छुटकी अब पढ़ पाएगी
हाथ में क़लम उठाएगी

अब तो जीत लेनी है दुनिया
हथियार ने हर ली हर दुविधा
अब भूख से पेट नहीं धधकेगी
आग-आग-आग बस आग लगेगी

यों भी मर ही जाना था
सब अपनों की बलि जब चढ़ जाना था
अब दम नहीं कि कोई उलझे
हाथ में है हथियार, जब तक दम न निकले

- जेन्नी शबनम (30.3.2011)
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शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

227. विध्वंस होने को आतुर

विध्वंस होने को आतुर

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चेतन अशांत है
अचेतन में कोहराम है
अवचेतन में धधक रहा
जैसे कोई ताप है

अकारण नहीं संताप
मिटना तो निश्चित है
नष्ट हो जाना ही
जैसे अन्तिम परिणाम है

विक्षिप्तता की स्थिति  
क्रूरता का चरमोत्कर्ष है
विध्वंस होने को आतुर
जैसे अब हर इन्सान है

विभीषिका बढ़ती जा रही
स्वयं मिटे, अब दूसरों की बारी है
चल रहा कोई महायुद्ध
जैसे सदियों से अविराम है

- जेन्नी शबनम (28.3.2011)
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