बुधवार, 15 अप्रैल 2009

52. मैं और मछली (पुस्तक - लम्हों का सफ़र - 107)

मैं और मछली

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जल-बिन मछली की तड़प
मेरी तड़प क्योंकर बन गई?
उसकी आत्मा की पुकार
मेरे आत्मा में जैसे समा गई

उसकी कराह, चीत्कार, मिन्नत
उसकी बेबसी, तड़प, घुटती साँसें
मौत का ख़ौफ़, अपनों को खोने की पीड़ा
किसी तरह बच जाने को छटपटाता तन और मन 

फिर उसकी अंतिम साँस, बेदम बेजान पड़ा शारीर
और उसके ख़ामोश बदन से, मनता दुनिया का जश्न 

या ख़ुदा! तुमने उसे बनाया, फिर उसकी ऐसी क़िस्मत क्यों?
उसकी वेदना, उसकी पीड़ा, क्यों नहीं समझते?
उसकी नियति भी तो, तुम्हीं बदल सकते हो न!

हर पल मेरे बदन में हज़ारों मछलियाँ
ऐसे ही जनमती और मरती हैं,
उसकी और मेरी तक़दीर एक है
फ़र्क़ महज़ ज़ुबान और बेज़ुबान का है  

वो एक बार कुछ पल तड़पकर दम तोड़ती है
मेरे अन्तस् में हर पल हज़ारों बार दम टूटता है
हर रोज़ हज़ारों मछली मेरे सीने में घुटकर मरती है

बड़ा बेरहम है, ख़ुदा तू
मेरी न सही, उसकी फितरत तो बदल दे!

- जेन्नी शबनम (अगस्त, 2007)
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