आज़ादी
आज़ादी
*******
कुछ-कुछ वैसी ही है
जैसे छुटपन में, पाँच पैसे से ख़रीदा हुआ लेमनचूस
जिसे खाकर मन खिल जाता था,
खुले आकाश तले, तारों को गिनती करती
वो बुढ़िया
जिसने सारे कर्त्तव्य निबाहे, और अब बेफ़िक्र, बेघर
तारों को मुट्ठियों में भरने की ज़िद कर रही है
उसके जिद्दी बच्चे
इस पागलपन को देख, कन्नी काटकर निकल लेते हैं
क्योंकि उम्र और अरमान का नाता वो नहीं समझते,
आज़ाद तो वो भी हैं
जिनके सपने अनवरत टूटते रहे
और नये सपने देखते हुए
हर दिन घूँट-घूँट, अपने आँसू पीते हुए
पुण्य कमाते हैं,
आज़ादी ही तो है
जब सारे रिश्तों से मुक्ति मिल जाए
यूँ भी, नाते मुफ़्त में जुड़ते कहाँ है?
स्वाभिमान का अभिनय
आख़िर कब तक?
- जेन्नी शबनम (16. 10. 2012)
_____________________