जैसे टी. वी. पर चीखते ख़बरनवीसों के कुतर्क असहनीय लगते हैं
कितना कुछ बदल दिया इस नन्हे-से विषाणु ने
मानव को उसकी औक़ात बता दी, इस अनजान शत्रु ने,
आज ताक़त के भूखे नरभक्षी, अपने बनाए गढ्ढे में दफ़न हो रहे हैं
भात-छत के मसले, वोटों की गिनती में जुट रहे हैं
सैकड़ों कोस चल-चलकर, कोई बेदम हो टूट रहा है
बदहवास लोगों के ज़ख़्मों पर, कोई अपनी रोटी सेंक रहा है
पेट-पाँव झुलस रहे हैं, आत्माएँ सड़कों पर बिलख रही हैं
रूह कँपाती ख़बरें हैं, पर अधिपतियों को व्याकुल नहीं कर रही हैं
अफ़वाहों के शोर में, घर-घर पक रहे हैं तोहमतों के पकवान
दिल दिमाग दोनों त्रस्त हैं, चारों तरफ है त्राहि-त्राहि कोहराम,
मन की धारणाएँ लगातार चहलक़दमी कर रही हैं
मंदिर-मस्जिद के देवता लम्बी छुट्टी पर विश्राम कर रहे हैं
इस लॉकडाउन में मन को सुकून देती पक्षियों की चहचहाहट है
जो सदियों से दब गई थी मानव की चिल्ला-चिल्ली में
खुला-खुला आसमान, खिली-खिली धरती है
सन्न-सन्न दौड़ती हवा की लहरें हैं
आकाश को पी-पीकर ये नदियाँ नीली हो गई हैं
संवेदनाएँ चौक-चौराहों पर भूखे का पेट भर रही हैं
ढेरों ख़ुदा आसमान से धरती पर उतर आए हैं अस्पतालों में
ख़ाकी अपने स्वभाव के विपरीत मानवीय हो रही है
सालों से बंद घर फिर से चहक रहा है
अपनी-अपनी माटी का नशा नसों में बहक रहा है,
बहुत कुछ भला-भला-सा है, फिर भी मन बुझा-बुझा-सा है
आँखें सब देख रहीं हैं, पर मन अपनी ही परछाइयों से घबरा रहा है
आसमाँ में कहकशाँ हँस रही है, पर मन है कि अँधेरों से निकलता नहीं
जाने यह उदासियों का मौसम कभी जाएगा कि नहीं,
तय है, शहर का लॉकडाउन टूटेगा
साथ ही लौटेंगी बेकाबू भीड़, बदहवास चीखें
लौटेगा प्रदूषण, आसमान फिर ओझल होगा
फिर से क़ैद होंगी पशु-पक्षियों की जमातें,
हाँ, लॉकडाउन तो टूटेगा, पर अब नहीं लौटेगी पुरानी बहार
नहीं लौटेंगे वे जिन्होंने खो दिया अपना संसार
सन्नाटों के शहर में अब सब कुछ बदल जाएगा
शहर का सारा तिलिस्म मिट जाएगा
जीने का हर तरीक़ा बदल जाएगा
रिश्ते, नाते, प्रेम, मोहब्बत का सलीका बदल जाएगा,
यह लॉकडाउन बहुत-बहुत बुरा है
पर थोड़ा-थोड़ा अच्छा है
यह भाग-दौड़ से कुछ दिन आराम दे रहा है
चिन्ताओं को ज़रा-सा विश्राम दे रहा है,
यह समय कुदरत के स्कूल का एक पाठ्यक्रम है
जीवन और संवेदनाओं को समझने का पाठ पढ़ा रहा है!
- जेन्नी शबनम (15. 5. 2020)
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