शनिवार, 30 मई 2020

667. नीरवता

नीरवता 

*** 

मन के भीतर   
एक विशाल जंगल बस गया है 
जहाँ मेरे शब्द चीखते-चिल्लाते हैं 
ऊँचे वृक्षों-सा मेरा अस्तित्व 
थककर एक छाँव ढूँढता है 
लेकिन छाँव कहीं नहीं है   
मैंने ख़ुद वृक्षों का क़त्ल किया था। 
   
इस बीहड़ जंगल से अब मन डरने लगा है   
ढूँढती हूँ, पुकारती हूँ   
पर कहीं कोई नहीं है   
मैंने इस जंगल में आने का न्योता   
कभी किसी को दिया ही नहीं था। 
   
मन में ये कैसा कोलाहल ठहर गया है?   
जानवरों के जमावड़े का ऊधम है 
या मेरे सपने टकरा रहे हैं? 
  
कभी मैंने अपनी सभी ख़्वाहिशों को   
ताक़त के रूप में बाँटकर 
आपस में लड़ा दिया था   
जो बच गए थे, उन्हें आग में जला डाला   
अब तो सब लुप्त हो चुके हैं   
मगर शोर है कि थमता नहीं। 
   
मन का यह जंगल, न आग लगने से जलता है   
न आँधियों में उजड़ता है   
नीरवता व्याप्त है, जंगल थरथरा रहा है   
अब क़यामत आने को है।   

-जेन्नी शबनम (30.5.2020)
____________________

सोमवार, 25 मई 2020

666. मन्त्र

मन्त्र 

***

अपनी पीर छुपाकर जीना   
मीठे कहकर आँसू पीना   
ये दस्तूर निभाऊँ कैसे   
जिस्म है घायल छलनी सीना।   

रिश्ते-नाते निभ नहीं पाते   
करें शिकायत किसकी किससे   
गली-चौबारे ख़ुद में सिमटे   
दरख़्त हुए सब टुकड़े-टुकड़े।   

मृदु भावों की बली चढ़ाकर   
मतलबपरस्त हुई ये दुनिया   
ख़िदमत में मिट जाओ भी गर   
कहेगी क़िस्मत सोई ये दुनिया।   

बेग़ैरत हूँ, कहेगी दुनिया   
गर ख़िदमत न कर ख़ुद को सँवारा   
साथ नहीं कोई ब्रह्म या बाबा   
पीर-पैग़म्बर का नहीं सहारा।   

पीर पराई कोई न समझे   
मर-मरकर छोड़ो यों जीना   
ख़त्म करो अब हर ताल्लुक़ को   
मन्त्र ये जीवन का दोहराना। 
   
यों ही अब दुनिया में रहना   
यों ही अब दुनिया से जाना   
ख़त्म करो अब हर ताल्लुक़ को   
मन्त्र ये जीवन का दोहराना।

-जेन्नी शबनम (25.5.2020)
___________________

शुक्रवार, 22 मई 2020

665. स्वाद / बेस्वाद (10 क्षणिका)

स्वाद / बेस्वाद

******* 

1. 
इश्क़ का स्वाद 
***
तेरे इश्क़ का स्वाद   
मीठे पानी के झरने-सा   
प्यास से तड़पते राही को   
इक घूँट भर भी मिल जाए   
पीर-पैगंबर की दुआ   
क़ुबूल हो जाए।   

2. 
तेरा स्वाद
***
एक घूँट इश्क़    
और तेरा स्वाद   
अस्थि-मज्जा में जा घुला   
जिसके बिना   
जीवन नामुमकिन।   

3. 
स्वाद चख लिया 
***
उस रोज़ नथुनों में समा गई   
रजनीगंधा की ख़ुशबू   
जो तेरे बदन को छूती हुई   
मुझसे आकर लिपट गई थी   
और मेरी साँसों में तू ठहर गया था   
रजनीगंधा की ख़ुशबू अब भी आती है   
और मुझे छूकर गुज़र जाती है   
पर कोई और ख़ुशबू अब मुझे भाती नहीं   
तेरा स्वाद मेरे मन ने   
एक बार चख जो लिया है।   

4. 
मर्ज़ी का स्वाद 
***
तेरी बातें तेरी मर्ज़ी    
तेरी दीद तेरी मनमर्ज़ी   
तेरी मर्जी तेरी मनमर्ज़ी    
इसमें कहाँ मेरी मर्ज़ी    
तेरी मर्ज़ी का स्वाद बड़ा ही तीखा   
भा गई मुझको तेरी मर्ज़ी    
अब तेरी मर्ज़ी मेरी मर्ज़ी।   

5. 
जीवन का स्वाद 
***
जीवन का स्वाद   
मैंने घूँट-घूँट पीकर लिया   
एक घूँट तेरे वास्ते बचाकर रखा है   
गर मिलो कभी तुम   
वह घूँट तुम पी लेना   
मेरी ज़िन्दगी की कड़वाहट   
तुम भी जी लेना।   

6. 
स्वाद भरी ज़िन्दगी 
***
कुछ खट्टी कुछ मीठी   
स्वाद से भरी मेरी ज़िन्दगी   
थोड़ी नरम थोड़ी गरम   
गुलगुले-सी मेरी ज़िन्दगी   
आओ थोड़ा तुम भी चख लो   
एक और स्वाद का मजा ले लो।   

7.
बेस्वाद इश्क़ 
*** 
तेरा स्वाद बदन में घुल गया था   
जब इश्क़ का जाम पिया मैंने   
अब सब बेस्वाद हो गया है   
जब से तेरा इश्क़    
कहीं और आबाद हुआ है।   

8. 
स्वाद बह जाए 
***
झामे से खुरच-खुरचकर   
पूरे बदन को छील दिया है   
कि रिसते लहू के साथ   
तेरे इश्क़ का स्वाद बह जाए।   

9.
कसैला स्वाद 
*** 
तेरे इश्क़ का स्वाद   
कितना कसैला है   
जब-जब तेरी याद आई   
उबकाई-सी आती है।   

10. 
ज़िन्दगी का कसैला स्वाद 
***
कैसी कसक थी   
झिझक में जीती रही   
कहने की बेताबी   
मगर कभी कह न सकी   
दर्दे ए एहसास नहीं रेशमी   
मेरे अल्फ़ाज़ हो गए काग़ज़ी   
जाने किस चूल्हे पर पकी क़िस्मत   
जो ज़िन्दगी का स्वाद कसैला हुआ।   

- जेन्नी शबनम (22. 5. 2020) 
______________________

बुधवार, 20 मई 2020

664. कहासुनी जारी है

कहासुनी जारी है

*** 

पल-पल समय के साथ कहासुनी जारी है   
वो कहता रहता है, मैं सुनती रहती हूँ,   
अरेब-फ़रेब, जो उसका मन बोलता रहता है   
कान में पिघलता सीसा, उड़ेलता रहता है   
मैं हुँकारी भरती रहती हूँ, मुस्कुराती रहती हूँ   
अपना अपनापा दिखाती रहती हूँ। 
  
नहीं याद क्या-क्या सुनती रहती हूँ   
नहीं याद क्या-क्या बिसराती जाती हूँ   
जितना मेरा मन किया, उतना ही सुनती हूँ   
बहुत कुछ अनसुना करती हूँ।
   
न उसे पता कि मैंने क्या-क्या न सुना   
न मुझे पता कि उसने 
मुझे कितना-कितना धिक्कारा   
कितना-कितना दुत्कारा। 
  
फिर भी सब कहते हैं   
हमारे बीच बड़ा प्यारा सम्बन्ध है   
न हम लड़ते-झगड़ते दिखते हैं   
न कभी कहासुनी होती है   
बहुत प्यार से हम जीते हैं। 
  
यह हर कोई जानता है   
कहासुनी में दोनों को बोलना पड़ता है   
अपना-अपना कहना होता है   
दूसरों का सुनना होता है।
   
पर समय और मेरे बीच अजब-सा नाता है   
वह कहता जाता है, मै सुनती जाती हूँ   
कहासुनी जारी रहती है   
कहासुनी जारी है।

 -जेन्नी शबनम (20.5.2020) 
_____________________

शुक्रवार, 15 मई 2020

663. लॉकडाउन

लॉकडाउन

******* 

लॉकडाउन से जब शहर हुए हैं वीरान   
बढ़ चुकी है मन के लॉकडाउन की भी मियाद   
अनजाने भय से मन वैसे ही भयभीत रहता है 
जैसे आज महामारी से पूरी दुनिया डरी हुई है   
मन को हज़ारों सवाल बेहिसाब तंग करते हैं   
जैसे टी. वी. पर चीखते ख़बरनवीसों के कुतर्क असहनीय लगते हैं   
कितना कुछ बदल दिया इस नन्हे-से विषाणु ने   
मानव को उसकी औक़ात बता दी, इस अनजान शत्रु ने,   
आज ताक़त के भूखे नरभक्षी, अपने बनाए गढ्ढे में दफ़न हो रहे हैं   
भात-छत के मसले, वोटों की गिनती में जुट रहे हैं   
सैकड़ों कोस चल-चलकर, कोई बेदम हो टूट रहा है   
बदहवास लोगों के ज़ख़्मों पर, कोई अपनी रोटी सेंक रहा है   
पेट-पाँव झुलस रहे हैं, आत्माएँ सड़कों पर बिलख रही हैं   
रूह कँपाती ख़बरें हैं, पर अधिपतियों को व्याकुल नहीं कर रही हैं   
अफ़वाहों के शोर में, घर-घर पक रहे हैं तोहमतों के पकवान   
दिल दिमाग दोनों त्रस्त हैं, चारों तरफ है त्राहि-त्राहि कोहराम,   
मन की धारणाएँ लगातार चहलक़दमी कर रही हैं   
मंदिर-मस्जिद के देवता लम्बी छुट्टी पर विश्राम कर रहे हैं   
इस लॉकडाउन में मन को सुकून देती पक्षियों की चहचहाहट है   
जो सदियों से दब गई थी मानव की चिल्ला-चिल्ली में   
खुला-खुला आसमान, खिली-खिली धरती है   
सन्न-सन्न दौड़ती हवा की लहरें हैं   
आकाश को पी-पीकर ये नदियाँ नीली हो गई हैं   
संवेदनाएँ चौक-चौराहों पर भूखे का पेट भर रही हैं   
ढेरों ख़ुदा आसमान से धरती पर उतर आए हैं अस्पतालों में   
ख़ाकी अपने स्वभाव के विपरीत मानवीय हो रही है   
सालों से बंद घर फिर से चहक रहा है   
अपनी-अपनी माटी का नशा नसों में बहक रहा है,   
बहुत कुछ भला-भला-सा है, फिर भी मन बुझा-बुझा-सा है   
आँखें सब देख रहीं हैं, पर मन अपनी ही परछाइयों से घबरा रहा है   
आसमाँ में कहकशाँ हँस रही है, पर मन है कि अँधेरों से निकलता नहीं   
जाने यह उदासियों का मौसम कभी जाएगा कि नहीं,   
तय है, शहर का लॉकडाउन टूटेगा   
साथ ही लौटेंगी बेकाबू भीड़, बदहवास चीखें   
लौटेगा प्रदूषण, आसमान फिर ओझल होगा   
फिर से क़ैद होंगी पशु-पक्षियों की जमातें,   
हाँ, लॉकडाउन तो टूटेगा, पर अब नहीं लौटेगी पुरानी बहार   
नहीं लौटेंगे वे जिन्होंने खो दिया अपना संसार   
सन्नाटों के शहर में अब सब कुछ बदल जाएगा   
शहर का सारा तिलिस्म मिट जाएगा   
जीने का हर तरीक़ा बदल जाएगा   
रिश्ते, नाते, प्रेम, मोहब्बत का सलीका बदल जाएगा,   
यह लॉकडाउन बहुत-बहुत बुरा है   
पर थोड़ा-थोड़ा अच्छा है   
यह भाग-दौड़ से कुछ दिन आराम दे रहा है   
चिन्ताओं को ज़रा-सा विश्राम दे रहा है,   
यह समय कुदरत के स्कूल का एक पाठ्यक्रम है   
जीवन और संवेदनाओं को समझने का पाठ पढ़ा रहा है!   

- जेन्नी शबनम (15. 5. 2020) 
____________________

बुधवार, 13 मई 2020

662. अलविदा

अलविदा  

***

तपती रेत पर पाँव के नहीं   
जलते पाँव के ज़ख़्मों के निशान हैं   
मंज़िल दूर, बहुत दूर दिख रही है  
पाँव थक चुके हैं 
पाँव और मन जल चुके हैं  
हौसला देने वाला कोई नहीं  
साँसें सँभालने वाला कोई नहीं।
   
यह तय है 
ज़िन्दगी वहाँ तक नहीं पहुँच पाएगी   
जहाँ पाँव-पाँव चले थे 
जहाँ सपनों को पंख लगे थे  
जहाँ से ज़िन्दगी को सींचने 
बहुत दूर निकल पड़े थे। 
  
आह! अब और सहन नहीं होता  
तलवे ही नहीं, आँतें भी जल गई हैं  
जल की एक बूँद भी नहीं  
जिससे अन्तिम क्षण में तालू तर हो सके  
उम्मीद की अन्तिम तीली बुझने को है  
आख़िरी साँस अब उखड़ने को है। 
  
सलाम उन सबको   
जिनके पाँव ने उनका साथ दिया 
मेरे उन सपनों, उन अपनों 
उन यादों को अलविदा।   

-जेन्नी शबनम (12.5.2020) 
____________________

शुक्रवार, 8 मई 2020

661. अनुभूतियों का सफ़र

अनुभूतियों का सफ़र 

*** 

अनुभूतियों के सफ़र में   
सम्भावनाओं को ज़मीन न मिली  
हताश हूँ, परेशान हूँ, मगर हार की स्वीकृति 
मन को नहीं सुहाती।   

फिर-फिर उगने और उड़ने के लिए   
पुरज़ोर कोशिश करती हूँ    
कड़वे-कसैले से कुछ अल्फ़ाज़, मन को बेधते हैं   
फिर-फिर जीने की तमन्ना में   
हौसलों की बाग़वानी करती हूँ। 
 
सँभलने और स्थिरता की मियाद   
पूरी नहीं होती कि सब ध्वस्त हो जाता है
जाने कौन-सा गुनाह था या किसी जन्म का शाप   
अनुभूतियों के सफ़र में महज़ कुछ फूल मिले   
शेष काँटे ही काँटे   
जो वक़्त-बेवक्त चुभते रहे, मन को बेधते रहे।
   
पर अब सम्भावनाओं को जिलाना होगा   
उसे ज़मीन में उगाना होगा   
थके हों क़दम, मगर चलना होगा   
आसमान छिन जाए, मगर   
ज़मीन को पकड़ना होगा। 
  
जीवन की अनुभूतियाँ सम्बल हैं और   
जीवन की सम्भावना भी।


-जेन्नी शबनम (7.5.2020) 
___________________

मंगलवार, 5 मई 2020

660. सरेआम मिलना (तुकांत)

सरेआम मिलना 

*******  

अकेले मिलना अब हो नहीं सकता  
जब भी मिलना है सरेआम मिलना   

मेरे रंजों ग़म उन्हें भाते नहीं
फिर क्या मिलना और क्योंकर मिलना   

नहीं होती है रुतबे से यारी
इनसे दूरी भली फ़िजूल मिलना   

कब मिटते हैं नाते उम्र भर के
कभी आना अगर तो जीभर मिलना।   

काश! ऐसा मिलना कभी हो जाए
ख़ुद से मिलना और ख़ुदा से मिलना।   

ऐसा मिलना कभी तो हम सीखेंगे  
रूह से मिलना और दिल से मिलना   

ऐसा हुनर अब भी नहीं हम सीख पाए  
जो चुभाए नश्तर उससे अदब से मिलना   

रोज़ गुम होते रहे भीड़ में हम  
आसान नहीं होता ख़ुद से मिलना।   

ज़ीस्त की यादें अब सोने नहीं देती  
यूँ जाग-जागकर किससे मिलना?   

सच्ची बातें हैं चुभती बर्छी-सी  
'शब' तुम चुप रहना किसी से न मिलना।  

- जेन्नी शबनम (5. 5. 2020) 
_____________________ 

शुक्रवार, 1 मई 2020

659. गँवारू लड़की

गँवारू लड़की

***   

एक गाँव की लड़की   
शहर में पनाह ढूँढती रही   
अपना नाम बताकर अपना पता पूछती रही   
अपने हिस्से के कुछ क़िस्से लेकर   
सबके मन के द्वार खटखटाती थी   
थोड़ा अपनापन माँगती थी 
मुट्ठी भर ज़मीन चाहती थी। 
  
कभी किसी ने उसकी परवाह न की   
पर अब वह ख़ुद भी बेपरवाह हो चुकी है   
न घर मिला, न मन मिला, न मान मिला   
न ठौर, न ठिकाना मिला   
सबने कहा, वह गँवारू है, किसी काम की नहीं   
न शहर के लायक़, न किसी घर के लायक़   
पर अब वह उदास नहीं रहती 
अब उसकी चुप्पी टूट चुकी है   
वह पलायन न करेगी, ढीठ होकर बढ़ेगी। 
   
वह देसी बोली बोलती है 
उसे गर्व है अपनी बोली पर   
वह गाँव की गँवार है 
उसे गर्व है, अपने गँवारूपन पर   
कम-से-कम उसने सोंधी मिट्टी को तो चूमा है   
अपनी बोली में सपनों को पाला है   
शहर आकर भी, जो गाँव से लाई थी 
सब सँभाला है   
पेड़-पौधों को दुलराया है   
वह हाथ से खाती है, तो अन्न को पहचानती है   
धड़कनों से बात करती है, तो मन को पहचानती है   
खेतों-डरेरों पर कूदती-फाँदती 
पशु-पक्षियों से यारी निभाई है   
वह सारे रिश्ते जीकर शहर आई है। 
   
हाँ! वह शहरी नहीं, शहर के लिए पराई है   
पर वो बहुत प्यारे गाँव से आई है   
शायद इसलिए वह अबतक कंक्रीट पहन नहीं पाई   
मोम को ओढ़कर बैठी है, पत्थर बन नहीं पाई   
इस जंगल में खो नहीं पाई   
अच्छा है, शहर की हो नहीं पाई   
वह गाँव की लड़की गँवारू है   
मगर अब शहर की नब्ज़ और शहरियों का शातिरपना 
पहचान गई है   
ख़ुद को समझने लगी है
शहर को जान गई है।   

-जेन्नी शबनम (1.5.2020)
___________________