नहीं आता
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ग़ज़ल नहीं कहती
यूँ कि मुझे कहना नहीं आता
चाहती तो हूँ मगर
मन का भेद खोलना नहीं आता।
बसर तो करनी है पर
शहर की आबोहवा बेगानी लगती
रूकती हूँ समझती हूँ
पर दमभरकर रोना नहीं आता।
सफ़र में अब जो भी मिले
मुमकिन है मंज़िल मिले न मिले
परवाह नहीं पाँव छिल गए
दमभर भी हमें ठहरना नहीं आता।
मायूसी मन में पलती रही
अपनों से ज़ख़्म जब भी गहरे मिले
कोशिश की थी कि तन्हा चलूँ
पर अपने साथ जीना नहीं आता।
यादों के जंजाल में उलझके
बिसुराते रहे हम अपने आज को
हँस-हँसके ग़म को पीना होता
पर 'शब' को यूँ हँसना नहीं आता।
- जेन्नी शबनम (7. 6. 2019)
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