रविवार, 21 जून 2020

673. बोनसाई

बोनसाई 

*** 

हज़ारों बोनसाई उग गए हैं   
जो छोटे-छोटे ख़्वाबों की पौध हैं 
ये पौधे अब दरख़्तों में तब्दील हो चुकें हैं। 
  
ये सदा हरे-भरे नहीं रहते 
मुरझा जाने को होते हैं 
कि रहम की ज़रा-सी बदली बरसती है 
वे ज़रा-ज़रा हरियाने लगते हैं 
फिर कुनमुनाकर सब जीने लगते हैं। 
   
वे अक्सर अपने बौनेपन का प्रश्न करते हैं   
आख़िर वे सामान्य क्यों न हुए 
क्यों बोनसाई बन गए   
ये कैसा रहस्य है  
ये ऐसे दरख़्त क्यों हुए 
जो किसी को छाँव नहीं दे सकते 
फलने, फूलने, जीने के लिए हज़ार मिन्नतें करते हैं   
फिर मौसम को तरस आता है   
वे ज़रा-सी धूप और पानी दे देते हैं। 
  
आख़िर ऐसा क्यों है?   
क्यों बिन माँगे मौसम उन्हें कुछ नहीं देता   
क्यों लोग हँसते हैं उसके ठिगनेपन पर   
बोनसाई होना उनकी चाहत तो न थी 
सब तक़दीर के तमाशे हैं   
जो वे भुगतते हैं   
रोज़ मर-मरकर जीते है   
पर ख़्वाबों के ये बोनसाई 
कभी-कभी तनहाई में हँसते भी हैं।    

-जेन्नी शबनम (21. 6. 2020) 
_____________________