रिश्तों का लिबास सहेजना होगा
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रिश्तों के लिबास में, फिर एक खरोंच लगी
पैबंद लगा के, कुछ दिन और ओढ़ना होगा।
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रिश्तों के लिबास में, फिर एक खरोंच लगी
पैबंद लगा के, कुछ दिन और ओढ़ना होगा।
पहले तो छुप जाता था
जब सिर्फ़ सिलाई उघड़ती थी,
कुछ और नये टाँके
फिर नया-सा दिखता था।
तुरपई कर-कर हाथें थक गईं
कतरन और सब्र भी चूक रहा,
धागे उलझे और सूई टूटी
मन भी अब बेज़ार हुआ।
डर लगता अब, कल फिर फट न जाए
रफ़ू कहाँ और कैसे करुँगी
हर साधन अब शेष हुआ।
इस लिबास से बदन नहीं ढँकता
अब नंगा तन और मन हुआ,
ये सब गुज़रा, उससे पहले
क्यों न जीवन का अंत हुआ?
सोचती हूँ, जब तक जीयूँ, आधा पहनूँ
आधा फाड़कर सहेज दूँ,
विदा होऊँगी जब इस जहान से
इसका कफ़न भी तो ओढ़ना होगा।
रिश्तों के इस लिबास को
आधा-आधा कर सहेजना होगा।
- जेन्नी शबनम (10. 4. 2009)
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