बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

320. अब और कितना (क्षणिका)

अब और कितना

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कैलेंडर में हर गुज़रे दिन को
लाल स्याही से काटकर बीतने का निशान लगाती हूँ
साल-दर-साल अनवरत
कोई अंतिम दिन नहीं आता जो ठहरता हो
न कोई ऐसी तारीख़ आती है 
जिसके गुज़रने का अफ़सोस न हो
प्रतीक्षा की मियाद मानो निर्धारित हो
आह! अब और कितना?
किसी तरह हो, बस अंत हो। 

- जेन्नी शबनम (8. 2. 2012)
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