रविवार, 10 अक्टूबर 2010

181. रूह का सफ़र

रूह का सफ़र

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इस जीवन के बाद
एक और जीवन की चाह,
रूहानी इश्क़ का ख्व़ाब
है न अजब यह ख़याल!

क्या पता क्या हो
रूह हो या कि सब समाप्त हो
कहीं ऐसा न हो
शरीर ख़त्म हो और रूह भी मिट जाए
या फिर ऐसा हो
शरीर नष्ट हो और रूह रह जाए
महज़ वायु समान,
एहसास तो मुक़म्मल हो
पर रूह बेअख़्तियार हो 

कैसी तड़प होगी, जब सब दिखे पर हों असमर्थ
सामने प्रियतम हो, पर हों छूने में विफल
कितनी छटपटाहट होगी
तड़प बढ़ेगी और रूह होगी विह्वल

बारिश हो और भींग न पाएँ
भूख हो और खा न पाएँ
इश्क़ हो और कह न पाएँ
जाने क्या-क्या न कर पाएँ

सशक्त शरीर, पर होते हम असफल
रूह तो यूँ भी होती है निर्बल
जो है अभी ही कर लें पूर्ण
किसी शायद पर नहीं यक़ीन सम्पूर्ण

फिर भी, जो न मिल सका
उम्मीद से जीवन सजा लें 
शायद हो इस जन्म के बाद
रूह के सफ़र की नयी शुरुआत

- जेन्नी शबनम (10. 10. 2010)
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