गँवारू लड़की
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एक गाँव की लड़की
शहर में पनाह ढूँढती रही
अपना नाम बताकर अपना पता पूछती रही
अपने हिस्से के कुछ क़िस्से लेकर
सबके मन के द्वार खटखटाती थी
थोड़ा अपनापन माँगती थी
मुट्ठी भर ज़मीन चाहती थी।
कभी किसी ने उसकी परवाह न की
पर अब वह ख़ुद भी बेपरवाह हो चुकी है
न घर मिला, न मन मिला, न मान मिला
न ठौर, न ठिकाना मिला
सबने कहा, वह गँवारू है, किसी काम की नहीं
न शहर के लायक़, न किसी घर के लायक़
पर अब वह उदास नहीं रहती
अब उसकी चुप्पी टूट चुकी है
वह पलायन न करेगी, ढीठ होकर बढ़ेगी।
वह देसी बोली बोलती है
उसे गर्व है अपनी बोली पर
वह गाँव की गँवार है
उसे गर्व है, अपने गँवारूपन पर
कम-से-कम उसने सोंधी मिट्टी को तो चूमा है
अपनी बोली में सपनों को पाला है
शहर आकर भी, जो गाँव से लाई थी
सब सँभाला है
पेड़-पौधों को दुलराया है
वह हाथ से खाती है, तो अन्न को पहचानती है
धड़कनों से बात करती है, तो मन को पहचानती है
खेतों-डरेरों पर कूदती-फाँदती
पशु-पक्षियों से यारी निभाई है
वह सारे रिश्ते जीकर शहर आई है।
हाँ! वह शहरी नहीं, शहर के लिए पराई है
पर वो बहुत प्यारे गाँव से आई है
शायद इसलिए वह अबतक कंक्रीट पहन नहीं पाई
मोम को ओढ़कर बैठी है, पत्थर बन नहीं पाई
इस जंगल में खो नहीं पाई
अच्छा है, शहर की हो नहीं पाई
वह गाँव की लड़की गँवारू है
मगर अब शहर की नब्ज़ और शहरियों का शातिरपना
पहचान गई है
ख़ुद को समझने लगी है
शहर को जान गई है।
-जेन्नी शबनम (1.5.2020)
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