शनिवार, 30 अप्रैल 2011

237. आग सुलग रही है

आग सुलग रही है

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एक आग सुलग रही है सदियों से
मन पर बोझ है, सीने में कसक उठती है 
सिसक-सिसककर जीती है 
पर ख़त्म नहीं होती ज़िन्दगी। 

अब आग को हवा मिल रही है
सब भस्म कर देने का मन है
पर ऐसी चाह तो न थी, जो अब दिख रही है 
जीतने का मन था, किसी की हार कब चाही थी 
सीने की जलन का क्या करूँ
क्या इनके साथ होकर शान्त कर लूँ ख़ुद को?

सब तरफ़ आग-आग
सब तरफ हिन्सा-हिन्सा 
कैसे हो जाऊँ इनके साथ?
वे सभी खड़े हैं, साथ देने के लिए
मेरे ज़ख़्म को हवा देने के लिए
अपने लिए दूसरों का हक़ छीन लेने के लिए
नहीं ख़त्म होगी सदियों की पीड़ा
नहीं चल सकती मैं इनके साथ। 

बात तो फिर वही रह गई
अब कोई और शोषित है, पहले कोई और था
एक आग अब उधर भी सुलग रही है 
जाने अब क्या होगा?

- जेन्नी शबनम (19.4.2011)
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