मंगलवार, 27 जुलाई 2010

159. शापित हूँ मैं / shaapit hun main

शापित हूँ मैं

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शापित हूँ मैं
सिर्फ खोना है
हारने के लिए जीना है 

अवांछित हूँ मैं
सिर्फ क्रंदन है 
एहसास है पर बंधन है 

नियति का मज़ाक हूँ मैं
ठूंठ बदन है 
पर फूल खिल गये हैं

नहीं उगने दूँगी कोई फूल
भले ये ज़मीन बंज़र कहलाए
काट डालूँगी अपनी ही जड़
कभी कोई छाँव न पाए
कतर डालूँगी हर सोच
जो मुझमें उम्मीद जगाए 

नियति की हार नहीं होगी
मेरी जीत कभी नहीं होगी
मैं शापित हूँ!

हाँ! शापित हूँ मैं!

- जेन्नी शबनम (27. 7. 2010)
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shaapit hun main

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shaapit hun main
sirf khona hai
haarne ke liye jina hai.

avaanchhit hun main
sirf krandan hai
yehsaas hai par bandhan hai.

niyati ka majaaq hun main
thunth badan hai
par phul khil gaye hain.

nahin ugne dungi koi phul
bhale ye zameen banjar kahlaaye
kaat daalungi apni hin jad
kabhi koi chhanv na paaye
qatar daalungi har soch
jo mujhmen ummid jagaaye.

niyati ki haar nahin hogi
meri jeet kabhi nahin hogi
main shaapit hun!

haan! shaapit hun main!

- jenny shabnam (27. 7. 2010)
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सोमवार, 26 जुलाई 2010

158. विदा अलविदा / vida alvida

विदा अलविदा

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कुछ लम्हे साथ जीती, ये कैसी ख़्वाहिश होती
दूर भी तो न हुई कभी, फिर ये चाह क्यों होती 

ख़त में सुने उनके नग़्में, पर धुन पराई है लगती
वो निभाते उम्र के बंधन, ज़िन्दगी यूँ नहीं ढलती 

इश्क में मिटना लाज़िमी, क्यों है ये दस्तूर ज़रूरी
इश्क में जीना ज़िन्दगी, कब जीता कोई ज़िन्दगी

विदा अलविदा की कहानी, रोज़ कहते वो मुँह-ज़बानी
कल अलविदा मैं कह गई, फिर समझे वो इसके मानी 

हिज्र की एक रात न आई, न वस्ल ने लिखी कहानी
'शब' ओढ़ती रोज़ चाँदनी, पर रात अमावास की होती 

- जेन्नी शबनम (19. 7. 2010)
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vida alvida

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kuchh lamhe saath jiti, ye kaisi khwaahish hoti
door bhi to na hui kabhi, phir ye chaah kyon hoti.

khat mein sune unke nagmein, par dhun paraai hai lagti
vo nibhaate umrra ke bandhan, zindagi yun nahin dhalti.

ishq mein mitna laazimi, kyon hai ye dastoor zroori
ishq mein jina zindagi, kab jita koi zindagi.

vida alvida ki kahaani, roz kahte vo moonh-zabaani
kal alvida main kah gai, phir samjhe vo iske maani.

hijrra ki ek raat na aai, na vasl ne likhi kahaani
'shab' odhti roz chaandni, par raat amaavas ki hoti.

- Jenny Shabnam (19. 7. 2010)
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गुरुवार, 22 जुलाई 2010

157. किस किस के दर्द को चखती 'शब' (तुकांत) / kis kis ke dard ko chakhti 'shab' (tukaant)

किस-किस के दर्द को चखती 'शब'

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वाह वाही से अब दम घुटता है
सच सुनने को मन तरसता है 

छवि बनाऊँ जो पसंद ज़माने को
मुखौटे ओढ़-ओढ़ मन तड़पता है 

उनकी सरपरस्ती मुझे भाती नहीं
अपने पागलपन से दिल डरता है 

आसमान तो सबको मिला भरपूर
पर आसरा सबको नहीं मिलता है 

अपने आँसुओं से प्यास बुझती नहीं
मेरी अँजुरी में जल नहीं ठहरता है 

सब पूछते मैं इतनी रंज क्यों रहती हूँ
भूखे बच्चों को देख सब्र नहीं रहता है 

किस-किस के दर्द को चखती 'शब'
ज़माने को कुछ भी कब दिखता है 

- जेन्नी शनम (21. 07. 2010)
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kis-kis ke dard ko chakhti 'shab'

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waah waahi se ab dam ghutata hai
sach sunane ko man tarasta hai.

chhavi banaaun jo pasand zamaane ko
mukhoute odh-odh man tadapta hai.

unki sarparasti mujhe bhaati nahin
apne pagalpan se dil darta hai.

aasmaan to sabko mila bharpur
par aasra sabko nahin milta hai.

apne aansuon se pyaas bujhti nahin
meri anjuri mein jal nahin thaharta hai.

sab puchhte main itni ranj kyon rahti hun
bhukhe bachchon ko dekh sabrr nahin rahta hai.

kis-kis ke dard ko chakhti 'shab'
zamaane ko kuchh bhi kab dikhta hai.

- Jenny Shabnam (21. 7. 2010)
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रविवार, 18 जुलाई 2010

156. न बीतेंगे दर्द के अंतहीन पल / na beetenge dard ke antaheen pal (पुस्तक - लम्हों का सफ़र - 32)

न बीतेंगे दर्द के अंतहीन पल

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स्मृति की गहरी खाई में, फिर उतर आई हूँ 
न चाहूँ फिर भी, वक़्त बेवक़्त पहुँच जाती हूँ 
कोई गहरी टीस, सीने में उभरती है 
कोई रिसता घाव, रह-रहकर याद दिलाता है

मानस पटल पर अंकित, कोई अभिशापित दृष्य
अतीत के विचलित, वक़्त का हर परिदृष्य
दर्द की अकथ्य दास्तान, जो रहती अदृष्य

दुःस्वप्नों की तमाम परछाइयाँ, पीछा करती हैं 
कैसे हर रिश्ता अचानक, पराया बन बैठा 
सभी की निगाहों में, तरस और दया का बोध 
बिचारी का वो संबोधन, जो अब भी बेध जाता है मन

आज ख़ुद से फिर पूछ बैठी - 
किसे कहते हैं बचपन? क्या किसी के न होने से सब ख़त्म? 
एक और सवाल ख़ुद से - 
क्या सच में कुँवारी बाला मदमस्त चहकती है? 
मैं चहकना क्यों भूली? 
बार-बार पूछती - 
क्यों हमारे ही साथ? कौन बचाएगा गिद्ध दृष्टि से? 
कई सवाल अब भी - 
क्यों उम्र और रिशतों के मायने बदल जाते हैं? 
क्यों मझधार में छोड़ सब पार चले जाते हैं? 

न रुका न माना न परवाह, चाहे संसार हो या वक़्त 
मैं भी नहीं रुकी, हर झंझावत पार कर गई
पर वो टीस और बिचारी के शब्द 
फ़फोले की तरह अक्सर सीने में उभर आते हैं
यूँ बीत तो गए, खौफ़ के वर्ष, पर 
उफ़! न बीतेंगे दर्द के अंतहीन पल!

- जेन्नी शबनम (18. 7. 2010)
(पिता की पुण्यतिथि)
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na beetenge dard ke antaheen pal

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smriti ki gahri khaai mein, fir utar aai hun
na chaahun fir bhi, waqt bewaqt pahunch jaati hun
koi gahri tees, sine mein ubharti hai
koi rista ghaav, rah-rahkar yaad dilaata hai.

maanas patal par ankit, koi abhishaapit drishya
ateet ke vichalit, vaqt ka har paridrishya,
dard ki akathya daastan, jo rahti adrishya. 

duhswapnon ki tamaam parchhaaiyan, pichha karti hain
kaise har rishta achaanak, paraaya ban baitha
sabhi ki nigaahon mein, taras aur daya ka bodh
bichaari ka wo sambodhan, jo ab bhi bedh jata hai mann. 

aaj khud se fir puchh baithi -
kise kahte hain bachpan? kya kisi ke na hone se sab khatm?
ek aur sawaal khud se -
kya sach mein kunwaari baala madmast chahakti hai?
main chahakna kyon bhooli?
baar baar puchhti -
kyon humaare hi saath? koun bachaayega giddh drishti se?
kayee sawaal ab bhi -
kyon umra aur rishton ke maayane badal jaate hain?
kyon majhdhaar mein chhod sab paar chale jaate hain?

na ruka na maana na parawaah, chaahe sansaar ho ya waqt
main bhi nahin ruki, har jhanjhaawat paar kar gai
par wo tees aur bichaari ke shabd
fafole ki tarah aksar sine mein ubhar aate hain
yun beet to gaye, khouf ke varsh, par
uf! na beetenge dard ke antaheen pal!

- jenny shabnam (18. 7. 2010)
(pita kee punyatithi)
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गुरुवार, 15 जुलाई 2010

155. नहीं लिख पाई ख़ुद पर कविता / nahin likh paai khud par kavita

नहीं लिख पाई ख़ुद पर कविता

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सहमती-झिझकती वह आई
फूलती साँसें, पर अविलम्ब बोली 
"आज मुझ पर भी कुछ लिखो
सब पर तो कविता लिखती हो।"
मैं बोली साँसों को ज़रा राहत दो
फिर आराम से अपनी कथा सुनाओ
जिए हर एहसास बता दिया उसने
हर पहलू जीवन का सुना दिया उसने 

सोचने लगी मैं
उसके किस पहलू को उतारूँ काग़ज़ पर
उसके छलनी एहसास और टूटते विश्वास को
उसकी चमकती आँखों में छलक आए आँसुओं को
उसकी खनकती हँसी में छुपी कहानी लिखूँ
मर-मरकर जीने की व्यथा लिखूँ
उसकी उदास ज़िन्दगी की परेशानी लिखूँ
या कामयाब ज़िन्दगी की नाकामी लिखूँ। 

कैसे लिखूँ मैं उसके मन का सन्नाटा
उसकी आरज़ू का बिखरना
अपनों के बीच वह अकेली
जो बनी ग़ैरों के लिए एक पहेली 

मैंने उससे कहा-
तुम्हारे जीवन के हर पल पर
एक नहीं कई कविताएँ रच जाएँगी
तुम बताओ किस मनोदशा पर लिखूँ
जो तुम कहो उसी पल को अभिव्यक्त करूँ

फफककर रो पड़ी वह 
हर राज़ खोल गई वह 
अश्रु-बाँध टूट गया उसका
ज़माने से होगा जो छुपाया

उसकी कहानी पूर्ण हुई
पर मेरी उलझन बढ़ गई
मैं अवाक् उसे देखती रही
हतप्रभ उसे समझती रही

जाने वह कौन थी
किसकी कहानी दोहरा रही थी
मुझको मेरी ही कहानी सुना गई
या मैं भ्रमित हो गई
सबकी कहानी एक-सी तो होती है
किसके जीवन में सिर्फ़ ख़ुशियाँ होती हैं

मैंने पूछा-
तुम कौन हो?
मेरी कहानी को अपना क्यों कह रही हो?
अचानक वह हँस पड़ी 
मुस्कुराकर उठ चली 
अब वो शांत थी और मैं उदिग्न
बाँह पकड़ उसे बैठाई खींच

मैं बोली-
बताओ परिचय तुम अपना
कैसे जाना हर राज़ मेरा
मेरी कोई सहेली नहीं, न कोई अपना
फिर किसने कहा तुमसे मेरा अफ़साना। 

कहा उसने-
पहले ख़ुद को जानो
याद करो ख़ुद को फिर मुझे पहचानो
शुरू से एकमात्र मैं राज़दार हूँ तुम्हारी
जिससे ही तुम अपनी व्यथा हो छुपाती
अब तो पहचान जाओ मैं कौन हूँ। 

हे सखी! मैं तुम्हारी छाया हूँ
सब पर इतनी बेबाकी से लिखती हो
अपनी ज़िन्दगी क्यों छुपाती हो
न कोई अपना, न पराया
फिर किस बात से मन घबराता
ख़ुद पर तो कभी लिखती नहीं तुम
आज मेरी ज़ुबानी सुनकर अपनी कहानी
अब तो ख़ुद पर लिखो कविता

मैं बोली-
हे सखी! तुम मेरी साया और मुझको समझ न सकी
जब तुमसे नहीं कहती, तो कैसे लिखूँ
अपनी व्यथा कह, किससे आस जोहूँ
कई बार प्रयास किया, पर विफल रही
नहीं लिख सकी ख़ुद पर कविता 
सुनाओ किसी और की अन्तःकथा
नहीं लिख पाऊँगी ख़ुद पर कविता

- जेन्नी शबनम (11.7.2010)
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nahin likh paai khud par kavita

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sahamti-jhijhakti wah aai
phoolti saansein, par avilamb boli 
"aaj mujh par bhi kuchh likho
sab par to kavita likhti ho."
main boli saanson ko zara raahat do
fir aaraam se apni katha sunaao
jiye har yehsaas bata diya usne
har pahloo jivan ka suna diya usne.

sochne lagi main 
uske kis pahaloo ko utaarun kaagaz par
uske chhalni ehsaas aur tootate vishvaas ko
uski chamakti aankhon mein chhalak aaye aansuon ko
uski khanakti hansi mein chhupi kahaani likhoon
mar-markar jine ki vyatha likhoon
uski udaas zindagi ki pareshaani likhoon
ya kamyaab zindagi ki naakaami likhoon.

kaise likhoon main uske mann ka sannaata
uski aarzoo ka bikharna
apnon ke bich wah akeli
jo bani gairon ke liye ek paheli.

maine usase kaha- 
tumhaare jivan ke har pal par
ek nahin kai kavitaayen rach jaayengi
tum bataao kis manodasha par likhoon
jo tum kaho usi pal ko abhivyakt karoon.

phaphakkar ro padi wah 
har raaz khol gai wah 
ashru-baandh toot gaya uska
zamaane se hoga jo chhupaaya.

uski kahaani purn hui
par meri uljhan badh gai
main avaak usey dekhti rahi
hatprabh usey samajhti rahi.

jaane woh koun thi
kiski kahaani dohara rahi thi
mujhko meri hi kahaani suna gai
ya main bhramit ho gai
sabki kahaani ek-si to hoti hai
kiske jivan mein sirf khushiyaan hoti hain.

maine puchha-
tum koun ho?
meri kahaani ko apna kyon kah rahi ho?
achaanak woh hans padi 
muskurakar uth chali 
ab woh shaant thi aur main udvign
baanh pakad usey baithaai khinch.

main boli-
bataao parichay tum apana
kaise jana har raaz mera
meri koi saheli nahin, na koi apana
fir kisane kaha tumse mera afsaana.

kaha usne-
pehle khud ko jaano
yaad karo khud ko fir mujhe pahchaano
shuru se ekmaatra main raazdar hoon tumhaari
jisase hi tum apni vyatha ho chhupaati
ab to pehchaan jaao main koun hoon.

hey sakhi! main tumhaari chhaaya hun
sab par itni bebaaki se likhti ho
apni zindgi kyon chhupaati ho
na koi apna, na paraaya
fir kis baat se mann ghabdaata
khud par kabhi likhti nahin tum
aaj meri zubaani sunkar apnee kahaanee
ab to khud par likho kavita.

main boli-
hey sakhi! tum meri saaya aur mujhko samajh na saki
jab tumse nahin kahti, to kaise likhoon
apni vyatha kah, kisase aas johoon 
kai baar prayaas kiya, par vifal rahi
nahin likh saki khud par kavita 
sunaao kisi aur ki antahkathaa
nahin likh paaoongi khud par kavita.

- Jenny Shabnam (11.7.2010)
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मंगलवार, 13 जुलाई 2010

154. यही है मन (क्षणिका) / yahi hai mann (kshanika)

यही है मन

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अचानक उल्लास अचानक संतप्त, पहेली है मन
रहस्यमय संसार उत्सुकता बहुत, भूलभूलैया है मन 
अधूरी चाह अतृप्त आकांक्षा, भटकता है मन
स्व संवाद नहीं विवाद, उलझता है मन
खंडित विश्वास अखंडित आस, यही है मन

- जेन्नी शबनम (13. 7. 2010)
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yahi hai mann

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achaanak ullaas achaanak santapt, paheli hai mann.
rahasyamay sansaar utsukta bahut, bhulbhulaiya hai mann.
adhuri chaah atript akaanksha, bhatakta hai mann.
swa samvaad nahin vivaad, ulajhta hai mann.
khandit vishvaas akhandit aas, yahi hai mann.

- Jenny Shabnam (13. 7. 2010)
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बुधवार, 7 जुलाई 2010

153. अल्लाह! ये कैसा सफ़र मैं कर आई / allah! ye kaisa safar main kar aai

अल्लाह! ये कैसा सफ़र मैं कर आई

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एक लम्हे की बात थी
और सदियाँ गुज़र गईं
मंज़िल नज़दीक थी
और ज़िन्दगी खो गई

कुछ क़दम थे बढ़े
कुछ क़दम थे घटे
जाने ये कैसा फ़साना
समझ कभी न पाई

रूह भी हुई अब मिट्टी
मिट्टी में सो गई सिसकी
तक़दीर पर इल्ज़ाम
और दी ख़ुदा की दुहाई

ग़र चल सको तो चलो
या लौट जाओ इसी पल
न थी क़ुव्वत साथ मरने की
और जीने की कसम उसने खाई

कह दिया होता उसी पल
बेमक़सद है सदियों का सफ़र
अब हर पहर हुआ ज़ख़्मी
अल्लाह! ये कैसा सफ़र मैं कर आई

- जेन्नी शबनम ( 7. 7. 2010)
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allah! ye kaisa safar main kar aai

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ek lamhe ki baat thi
aur sadiyaan guzar gaeen
manzil nazdik thi
aur zindagi kho gai.

kuchh kadam they badhe
kuchh kadam they ghate
jaane ye kaisa fasaana
samajh kabhi na paai.

rooh bhi hui ab mitti
mitti men so gai siski
takdir par ilzaam
aur dee khuda ki duhaai.

gar chal sako to chalo
ya lout jaao isi pal
na thi kuvat saath marne ki
aur jine ki kasam usne khaai.

kah diya hota usi pal
bemaksad hai sadiyon ka safar
ab har pahar hua zakhmi
allah! ye kaisa safar main kar aai.

- Jenny Shabnam (7. 7. 2010)
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मंगलवार, 6 जुलाई 2010

152. एक राह और एक प्याली / ek raah aur ek pyaali

एक राह और एक प्याली

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अभी भी मेरी आँखें 
वहीं खड़ी हैं, वहीं उसी मोड़ पर 
जहाँ से हमारे रास्ते, बदलते हैं हमेशा  

उस दिन भी तो 
साथ ही थे हम, आमने सामने बैठे 
कोल्ड कॉफ़ी की दो प्याली और साथ हमारी चुप्पी,  
हौले से उठाते हम, अपनी-अपनी प्याली 
कहीं शब्द तोड़ न दे प्याली 
या फिर गर्म न हो जाए ज़िन्दगी 
जकड़ न ले हमें हमारे रिश्ते 
पनपने भी न देते कभी मुसकान  

हाथ थाम चल दिए, कॉफ़ी के प्याले भी बदल लिए 
पर नहीं बदल सके फ़ितरत 
और हाथ छुड़ा चल देते, दो अलग-अलग दिशाओं में,
जानते तो हैं कि फिर मिलना है, ऐसे ही चुप्पी को समझना है 
दो कॉफ़ी के प्याले, बदलना भी है और पीना भी है

हर बार एक ही कहानी 
वही ख़ामोश राह, जहाँ से हर बार अलग होना है 
फिर दोबारा मिलने तक 
उसी जगह पर ठहरी रहती है आँखें 
जिस मोड़ से बदलते हैं रास्ते  

कह भी नहीं सकते कि 
इस बार आओ तो साथ ही चलेंगे 
तोड़ देंगे अपनी चुप्पी और दूसरी प्याली 
रहेगी एक राह और एक प्याली,  
छोड़कर जाते हुए, आँखें अब नम न होंगी 
न ठहरी रहेगी उसी मोड़ पर 
जहाँ से हमारे रास्ते, बदलते हैं हमेशा

- जेन्नी शबनम (5. 7. 2010)
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ek raah aur ek pyaali

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abhi bhi meri aankhein 
wahin khadi hain, wahin usi mod par 
jahaan se hamaare raaste, badalte hain hamesha.

us din bhi to 
saath hi the hum, aamne saamne baithe 
cold coffee ki do pyaali aur saath humaari chuppi,  
houle se uthaate hum, apni apni pyaali 
kahin shabd tod na de pyaali 
ya fir garm na ho jaaye zindagi 
jakad na le hamein hamaare rishte 
panapne bhi na dete kabhi muskaan.  

haath thaam chal diye, coffee ke pyaale bhi badal liye 
par nahin badal sake fitarat 
aur haath chhuda chal dete, do alag alag dishaon mein,  
jaante to hain ki fir milna hai, aise hi chuppi ko samajhna hai 
do coffee ke pyaale, badalna bhi hai aur pina bhi hai.

har baar ek hi kahaani 
wahi khaamosh raah, jahaan se har baar alag hona hai 
fir dobaara milne tak 
usi jagah par thahri rahti hain aankhein 
jis mod se badalte hain raaste.  

kah bhi nahin sakte ki 
is baar aao to saath hin chalenge 
tod denge apni chuppi aur dusri pyaali 
rahegi ek raah aur ek pyaali,  
chhod kar jaate hue, aankhein ab nam na hongi 
na thahri rahegi usi mod par 
jahaan se hamaare raaste, badalte hain hamesha. 

- Jenny Shabnam (5. 7. 2010)
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शनिवार, 3 जुलाई 2010

151. तलाशो डगर ख़ुद जलकर (तुकांत) / talaasho dagar khud jalkar (tukaant)

तलाशो डगर ख़ुद जलकर

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सोचो सदा, तुम समझकर
करो दोस्ती, ज़रा सँभलकर 

न टूटे कभी, ख़ुद पे यक़ीन
क़दम बढ़ाओ, तुम थमकर 

अँधियारे से, तुम डरो नहीं
तलाशो डगर, ख़ुद जलकर

कठिन हो, मंज़िल तो क्या
पालो जुनून, तुम कसकर

हारो नहीं, अपनों के छल से
जीतो तुम, सत्य पर चलकर

मिले दग़ा, तुम न होना ख़फ़ा
लोग देखेंगे, कभी तो पलटकर 

अपने दम पर, करो नव-निर्माण
दुआ है, यश मिले, तुमको जमकर 

- जेन्नी शबनम (22. 06. 2010)
(अपने पुत्र के 17 वें जन्मदिन पर)
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talaasho dagar khud jalkar

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socho sada, tum samajhkar
karo dosti, zara sambhalkar.

na toote kabhi, khud pe yakin
qadam badhaao, tum thamkar.

andhiyaare se, tum daro nahin
talaasho dagar, khud jalkar.

kathin ho, manzil to kya
paalo junoon, tum kaskar.

haaro nahin, apnon ke chhal se
jeeto tum, satya par chalkar.

mile dagha, tum na hona khafa
log dekhenge, kabhi to palatkar.

apne dam par, karo nav-nirmaan
dua hai, yash mile, tumko jamkar.

- Jenny Shabnam (22. 6. 2010)
(apne putra ke 17 ven janmdin par)
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गुरुवार, 1 जुलाई 2010

150. जवाब नहीं है मेरे पास / jawaab nahin hai mere paas

जवाब नहीं है मेरे पास

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आज फिर वो सवाल, बरबस याद आ गया
वर्षों पहले तुमने, हठात् जो मुझसे किया था
वही सवाल आज फिर, बेहिचक किया है तुमने
पल भर को भी कभी, क्या मैंने चाहा है तुम्हें

जवाब उस दिन भी, नहीं था मेरे पास
जब अपना जीवन, सौंप दिया था तुम्हें
आज भी ख़ामोश हूँ, जवाब नहीं है मेरे पास
प्रेम की कसौटी, रही है सदा मेरे समझ से परे

जानती हूँ, मेरी हर ख़ामोशी
कई सवालों को, जन्म देती है
जिनके जवाब, न मैं दे सकी
न कभी वक़्त ही दे पाया है 

पक्ष में कोई सुबूत, नहीं ला सकती हूँ
न कभी कोई जिरह ही, करना चाहती हूँ
सभी आरोप यथावत, स्वीकृत करती हूँ
पर कह नहीं सकती कि, मैं क्या सोचती हूँ 

तुम्हारे सभी सवाल, सदैव अधूरे ही होते हैं
अधूरे सवाल के पूरे जवाब, कैसे हो सकते हैं?
पूरे जवाब के लिए, पूरा सवाल भी करना पड़ता है
अधूरे जीवन से पूरा जीवन, नहीं समझा जा सकता है 

ख़ामोशी से उपजते हैं, मुझमें हर जवाब
ख़ामोशी से समझ लो, तुम अपना जवाब,
अब न पूछना बारम्बार, मुझसे ये सवाल
नहीं तो कर बैठूँगी मैं, तुमसे यही सवाल 

- जेन्नी शबनम (21. 6. 2010)
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jawaab nahin hai mere paas

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aaj fir wo sawaal, barbas yaad aa gaya
varshon pahle tumne, hathaat jo mujhse kiya tha
wahi sawaal aaj fir, behichak kiya hai tumne
pal bhar ko bhi kabhi, kya maine chaaha hai tumhen.

jawaab us din bhi, nahin tha mere paas
jab apna jivan, sounp diya tha tumhein
aaj bhi khaamosh hoon, jawaab nahin hai mere paas
prem ki kasouti, rahi hai sada mere samajh se parey. 

jaanti hun, meri har khaamoshi
kai sawaalon ko, janm deti hai
jinke jawaab, na main de saki
na kabhi, waqt hin de paaya hai.

paksh mein koi suboot, nahin la sakti hun
na kabhi koi jirah hi, karna chaahti hun,
sabhi aarop yathaawat, swikrit karti hun
par kah nahin sakti ki, main kya sochti hun.

tumhaare sabhi sawaal, sadaiv adhure hin hote hain
adhure sawaal ke pure jawaab, kaise ho sakte hain?
pure jawaab ke liye, pura sawaal bhi karna padta hai
adhure jivan se pura jivan, nahin samjha ja sakta hai.

khaamoshi se upajte hain, mujhmein har jawaab
khaamoshi se samajh lo, tum apna jawaab,
ab na poochhna baarambaar, mujhse ye sawaal
nahin to kar baithoongi main, tumse yahi sawaal.

- Jenny Shabnam (21.6.2010)
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