गुरुवार, 26 मार्च 2020

651. एकान्त

एकान्त    

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अपने आलीशान एकान्त में   
सिर्फ़ अपने साथ रहने का मन है   
जिन बातों को जिलाया मन में   
स्वयं को वह सब कहने का मन है   
सवालों के वृक्ष, जो वटवृक्ष बन गए   
उन्हें ज़मींदोज़ कर देने का मन है।   

मेरे हिस्से में आई है नफ़रत-ही-नफ़रत   
उसे दूर किसी गहरी झील में डूबो देने का मन है   
तोहमतों की फ़ेहरिस्त, जो मेरे माथे पे चस्पा है   
उन सभी को जगज़ाहिर कर देने का मन है   
मीलों लम्बा रेगिस्तान, जिसे मैंने ही चुना है   
अब वहाँ फूलों की क्यारी लगाने का मन है।   

जीवन के सारे अवलम्ब, अब काँटें चुभाते हैं   
सब छोड़कर अपने मौन को जीने का मन है   
ज़ीस्त के बियाबान रास्तों की कसक, कम नहीं होती   
उन सारे रास्तों से मुँह मोड़ लेने का मन है   
पसरी हुई चुप्पी बहुत आवाज़ देती है जब-तब   
सारे बन्धन तोड़, ख़ुद के साथ ज़ब्त हो जाने का मन है।   

जीवन के सारे संतुलन ख़ार हैं बस   
अब और संताप नहीं लेने का मन है   
ज़हर की मीठी ख़ुशबू न्योता देने आती है   
सारे विष पीकर नीलकण्ठ बन जाने का मन है   
अनायास तो कभी कुछ होता नहीं 
पर सायास कुछ भी नहीं करने का मन है
   
अपने आलीशान एकान्त में   
सिर्फ़ अपने साथ रहने का मन है।    

-जेन्नी शबनम (26.3.2020)   
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