शुक्रवार, 1 जून 2012

348. आईने का भरोसा क्यों

आईने का भरोसा क्यों

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प्रतिबिम्ब अपना-सा दिखता नहीं   
फिर बार-बार क्यों देखना?   
आईने को तोड़ निकल आओ बाहर   
किसी भी मौसम को   
आईने के शिनाख़्त की ज़रूरत नहीं,   
कौन जानना चाहता है   
क्या-क्या बदलाव हुए?   
क्यों हुए?   
वक़्त की मार थी   
या अपना ही साया साथ छोड़ गया   
किसने मन को तोड़ा   
या सपनों को रौंद दिया,   
आईने की ग़ुलामी 
किसने सिखाई?   
क्यों सिखाई?   
जैसे-जैसे वक़्त ने मिज़ाज बदले   
तन बदलता रहा   
मौसम की अफ़रा-तफ़री   
मन की गुज़ारिश नहीं थी, 
फिर आईने का भरोसा क्यों?   

- जेन्नी शबनम (1. 6. 2012)
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