मंगलवार, 22 नवंबर 2011

302. चुपचाप सो जाऊँगी

चुपचाप सो जाऊँगी 

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इक रोज़ तेरे काँधे पे
यूँ चुपचाप सो जाऊँगी
ज्यूँ मेरा हो वस्ल आख़िरी
और जहाँ से हो रुख़सती। 

जो कह न पाए तुम कभी
चुपके से दो बोल कह देना
तरसती हुई मेरी आँखें में
शबनम से मोती भर देना। 

ख़फा नहीं तक़दीर से अब
आख़िरी दम तुझे देख लिया
तुम मेरे नहीं मैं तेरी रही
ज़िन्दगी ने दिया, बहुत दिया। 

न कहना है कि भूल जाओ
न कहूँगी कि याद रखना
तेरी मर्ज़ी से थी चलती रही
जो तेरा फ़ैसला वो मेरा फ़ैसला। 

- जेन्नी शबनम (22. 11. 2011)
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बुधवार, 16 नवंबर 2011

301. उम्र कटी अब बीता सफ़र (पुस्तक - 47)

उम्र कटी अब बीता सफ़र

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बचपन कब बीता बोलो
हँस पड़ा आईना ये कहकर
काले गेसुओं ने निहारा ख़ुद को
चाँदी के तारों से लिपटाया ख़ुद को। 

चाँदी के तारों ने पूछा
माथे की शिकन से हँसकर
किसका रस्ता अगोरा तुमने?
क्या ज़िन्दगी को हँसकर जीया तुमने?

ज़िन्दगी ने कहा सुनो जी
हँसने की बारी आई थी पलभर
फिर दिन महीना और बीते साल
समय भागता रहा यूँ ही बेलगाम। 

समय ने कहा फिर
ज़रा हौले ज़रा तमककर
नहीं हौसला तो फिर छोड़ो जीना
'शब' का नहीं कोई साथी रहेगी तन्हा। 

'शब' ने समझाया ख़ुद को
अपने आँसू ख़ुद पोछ फिर हँसकर,
बेरहम तक़दीर ने भटकाया दर-ब-दर
अच्छा है, लम्बी उम्र कटी, अब बीता सफ़र!

- जेन्नी शबनम (16. 11. 2011)
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शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

300. अल्फ़ाज़ उगा दूँ (क्षणिका)

अल्फ़ाज़ उगा दूँ

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सोचती हूँ कुछ अल्फ़ाज़ उगा दूँ
तितर-बितरकर हर तरफ़ पसार दूँ
चुक गए हैं मेरे अंतस् से सभी
शायद किसी निर्मोही पल में
उनकी ज़रुरत पड़ जाए। 

- जेन्नी शबनम (11. 11. 2011)
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मंगलवार, 8 नवंबर 2011

299. भय

भय

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भय!
किससे भय? ख़ुद से?
ख़ुद से कैसा भय?
असम्भव!

पर ये सच है
अपने आप से भय
ख़ुद के होने से भय
ख़ुद के खोने का भय
अपने शब्दों से भय
अपने प्रेम से भय
अपने क्रोध से भय
अपने प्रतिकार से भय
अपनी चाहत का भय
अपनी कामना का भय
कुछ टूट जाने का भय
सब छूट जाने का भय  
कुछ अनजाना-अनचीन्हा भय
ज़िन्दगी के साथ चलता है
ख़ुद से ख़ुद को डराता है
 
कोई निदान?
असम्भव!
जीवन से मृत्युपर्यंत
भय! भय! भय!
न निदान, न नज़ात!

- जेन्नी शबनम (7.11.2011)
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रविवार, 6 नवंबर 2011

298. ज़िन्दगी कहाँ-कहाँ है

ज़िन्दगी कहाँ-कहाँ है

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तुम्हारी निशानदेही पर
साबित हुआ कि ज़िन्दगी कहाँ-कहाँ है
और कहाँ-कहाँ से उजड़ गई है
। 
एक लोकोक्ति की तरह
तुम बसे हो मुझमें
जिसे पहर-पहर दोहराती हूँ
या फिर देहात की औरतें
जैसे भोर में गीत गुनगुनाते हुए
रोपनी करती हैं या फिर
धान कूटते हुए लोकगीत गाती हैं
मुझमें वैसे ही उतर गए तुम
हर दिवस के अनुरूप
। 
जब मैं रात्रि में अपने केंचुल में समाती हूँ
जैसे तुम्हारे आवरण को ओढ़ लिया हो
और महफूज़ हूँ
फिर ख़ुद में ख़ुद को तलाशती हूँ
तुम झटके से आ जाते हो
जैसे रात के सन्नाटे में
पहरु के बोल और झींगुर के शोर
। 
मेरे केंचुल को किसी ने जला दिया
मैं इच्छाधारी
जब तुम्हारे संग अपने सच्चे वाले रंग में थी
मैं महरूम कर दी गई
अपनी जात से और औक़ात से
। 
अब तुम्हारी शिनाख्त की ज़रुरत है
ताकि वापस ज़िन्दगी मिले
और तुम्हारी निशानदेही पर
अपना नया केंचुल उगा लूँ
जिससे मेरी पहचान हो
और मुझमें वो रंग वापस उतर जाए
जिसे मैं दुनिया से ओझल हो
जीती हूँ
। 

- जेन्नी शबनम (6. 11. 2011)
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शनिवार, 5 नवंबर 2011

297. चक्रव्यूह (पुस्तक - 74)

चक्रव्यूह

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कैसे-कैसे इस्तेमाल की जाती हूँ
अनजाने ही, चक्रव्यूह में घुस जाती हूँ
जानती हूँ, मैं अभिमन्यु नहीं
जिसने चक्रव्यूह भेदना गर्भ में सीखा
मैं स्त्री हूँ, जो छली जाती है
कभी भावना से
कभी संबंधों के हथियार से
कभी सुख के प्रलोभन से
कभी ख़ुद के बंधन से
हर बार चक्रव्यूह में समाकर
एक नयी अभिमन्यु बन जाती हूँ
जिसने चक्रव्यूह से निकलना नहीं सीखा!

- जेन्नी शबनम (1. 11. 2011)
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