तुम्हारा 'कहा'
जानती हूँ, तुम्हारा 'कहा'
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मुझसे शुरू होकर
मुझ पर ही ख़त्म होता है,
उस 'कहा' में
क्या कुछ शामिल नहीं होता
प्यार
मनुहार
जिरह
आरोप
सरोकार
संदेह
शब्दों के डंक,
तुम जानते हो
तुम्हारी इस सोच ने मुझे तोड़ दिया है
ख़ुद से भी नफ़रत करने लगी हूँ
और सिर्फ़ इस लिए मर जाना चाहती हूँ
ताकि मेरे न होने पर
तुम्हारा ये 'कहा'
तुम किसी से कह न पाओ
और तुमको घुटन हो
तुम्हारी सोच, तुमको ही बर्बाद करे
तुम रोओ, किसी 'उस' के लिए
जिसे अपना 'कहा' सुना सको
जानती हूँ
मेरी जगह कोई न लेगा
तुम्हारा 'कहा'
अनकहा बनकर तुमको दर्द देगा
और तब आएगा मुझे सुकून,
जब भी मैंने तुमसे कहा कि
तुम्हारा ये 'कहा' मुझे चुभता है
न बोलो, न सोचो ऐसे
हमेशा तुम कहते हो-
तुम्हें न कहूँ तो भला किससे
एक तुम ही तो हो
जिस पर मेरा अधिकार है
मेरा मन, प्रेम करूँ
या जो मर्जी 'कहा' करूँ।
- जेन्नी शबनम (5. 5. 2013)
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