कड़ी
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अतीत की एक कड़ी
मैं ख़ुद हूँ
मन के कोने में, सबकी नज़रों से छुपाकर
अपने पिता को जीवित रखा है
जब-जब हारती हूँ
जब-जब अपमानित होती हूँ
अँधेरे में सुबकते हुए, पापा से जा लिपटती हूँ
ख़ूब रोती हूँ, ख़ूब ग़ुस्सा करती हूँ
जानती हूँ पापा कहीं नहीं
थककर ख़ुद ही चुप हो जाती हूँ
यह भूलती नहीं, कि रोना मेरे लिए गुनाह है
चेहरे पे मुस्कान, आँखों पर चश्मा
सब छुप जाता है ज़माने से
पर हर रोज़ थोड़ा-थोड़ा
सिमटती जा रही हूँ, मिटती जा रही हूँ
जीने की आरज़ू, जीने का हौसला
सब शेष हो चुका है
न रिश्ते साथ देते हैं, न रिश्ते साथ चलते हैं
दर्द की ओढ़नी, गले में लिपटती है
पिता की बाँहें, कभी रोकने नहीं आतीं
नितांत अकेली मैं
अपनों द्वारा कतरे हुए परों को, सहलाती हूँ
कभी-कभी चुपचाप
फेविकोल से परों को चिपकाती हूँ
जानती हूँ, यह खेल है, झूठी आशा है
पर मन बहलाती हूँ
हार अच्छी नहीं लगती मुझे
इसलिए ज़ोर से ठहाके लगाती हूँ
जीत का झूठा सच सबको बताती हूँ
बस अपने पापा को सब सच बताती हूँ
ज़ोर से ठहाके लगाती हूँ
मन बहलाती हूँ।
- जेन्नी शबनम (17. 6. 2019)
(पितृ-दिवस पर)
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