सरेआम मिलना
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अकेले मिलना अब हो नहीं सकता
जब भी मिलना है सरेआम मिलना।
मेरे रंजों ग़म उन्हें भाते नहीं
फिर क्या मिलना और क्योंकर मिलना।
नहीं होती है रुतबे से यारी
इनसे दूरी भली फ़िजूल मिलना।
कब मिटते हैं नाते उम्र भर के
कभी आना अगर तो जीभर मिलना।
काश! ऐसा मिलना कभी हो जाए
ख़ुद से मिलना और ख़ुदा से मिलना।
ऐसा मिलना कभी तो हम सीखेंगे
रूह से मिलना और दिल से मिलना।
ऐसा हुनर अब भी नहीं हम सीख पाए
जो चुभाए नश्तर उससे अदब से मिलना।
रोज़ गुम होते रहे भीड़ में हम
आसान नहीं होता ख़ुद से मिलना।
ज़ीस्त की यादें अब सोने नहीं देती
यूँ जाग-जागकर किससे मिलना?
सच्ची बातें हैं चुभती बर्छी-सी
'शब' तुम चुप रहना किसी से न मिलना।
- जेन्नी शबनम (5. 5. 2020)
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