मन! तुम आज़ाद हो जाओगे
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कहता है-
वो सारे सच जिसे मन की तलहटी में
जाने कब से छुपाया है मैंने
जगज़ाहिर कर दूँ।
चैन से सो नहीं पाता है वो
सारी चीख़ें, हर रात उसे रुलाती हैं
सारी पीड़ा भरभराकर
हर रात उसके सीने पर गिर जाती हैं
सारे रहस्य हर रात कुलबुलाते हैं
और बाहर आने को धक्का मारतें हैं
जगज़ाहिर कर दूँ।
चैन से सो नहीं पाता है वो
सारी चीख़ें, हर रात उसे रुलाती हैं
सारी पीड़ा भरभराकर
हर रात उसके सीने पर गिर जाती हैं
सारे रहस्य हर रात कुलबुलाते हैं
और बाहर आने को धक्का मारतें हैं
इस जद्दोज़हद में गुज़रती हर रात
यूँ लगता है
मानो आज आख़िरी है।
लेकिन सहर की धुन जब बजती है
मेरा मन ख़ुद को ढाढ़स देता है
बस ज़रा-सा सब्र और कर लो
मुमकिन है एक रोज़
बस ज़रा-सा सब्र और कर लो
मुमकिन है एक रोज़
जीवन से शब बिदा हो जाएगी
उस आख़िरी सहर में
उस आख़िरी सहर में
मन! तुम आज़ाद हो जाओगे।
- जेन्नी शबनम (10. 2. 2015)
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