बुधवार, 20 जुलाई 2011

266. एक चूक मेरी

एक चूक मेरी

***

रास्ते पर चलते हुए मैं उससे टकरा गई
उसके हाथ में पड़े सभी फ़लसफ़े गिर पड़े
जो मेरे लिए ही थे
सभी टूट गए और मैं देखती रही।   

उसने कहा 
ज़रा-सी चूक
तमाम जीवन की सज़ा बन गई तुम्हारी
तुम जानती हो कि उचित क्या है
क्योंकि तुमने देखे हैं उचित फ़लसफ़े
जो जन्म के साथ तुम्हें मिलने थे
जिनके साथ तुम्हें जीना था। 

अडिग रहने का साहस, अब तुममें न होगा
जाओ और जियो, उन सभी की तरह
जो किसी फ़लसफ़ा के बिना जीते और मर जाते हैं
बस एक फ़र्क़ होगा 
तुम्हें पता है कि तुम्हारे लिए सही क्या है
यह जानते हुए भी तुम्हें बेबस जीना होगा
अपनी आत्मा को मारना होगा।  

मेरे पास मेरे तर्क थे
कि यह अनजाने में हुआ
एक मौका और...!
इतने न सही, थोड़े से...!

पर उसने कहा 
यह सबक़ है, इस जीवन के लिए
ज़रा-सी चूक
और सब ऐसे ही ख़त्म हो जाता है
कोई मौक़ा दुबारा नहीं मिलता है।  

आज तक मैं जी रही
मेरे फ़लसफ़ों के टूटे टुकड़ों में
अपनी ज़िन्दगी को बिखरते देख रही
रोज़-रोज़ मेरी आत्मा मर रही। 
  
वह वापस कभी नहीं आया
न दुबारा मिला
एक चूक मेरी और...!

- जेन्नी शबनम (20.7.2011)
____________________