शनिवार, 24 अप्रैल 2021

718. पतझर का मौसम

पतझर का मौसम 

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पतझर का यह मौसम है   
सूखे पत्तों की भाँति चूर-चूर होकर   
हमारे अपनों को   
एक झटके में वहाँ उड़ाकर ले जा रहा है   
जहाँ से कोई नहीं लौटता। 
   
कितना भी तड़पें   
कितना भी रोएँ   
जाने वाले वापस नहीं आएँगे   
उनसे दोबारा हम मिल न पाएँगे   
काल की गर्दन तक हम पहुँच नहीं पाएँगे   
न उससे छीनकर किसी को लौटा लाएँगे। 
   
सँभालने को कोई नहीं   
सँभलने का कोई इन्तिज़ाम नहीं   
न दुआओं में ताक़त बची   
न मन्नतें कामयाब हो रहीं    
संसार की सारी सम्पदाएँ, सारी संवेदनाएँ   
एक-एककर मृत होती जा रही हैं। 
   
श्मशानों में तब्दील होता जा रहा है खिलखिलाता शहर   
तड़प-तड़पकर, घुट-घुटकर मर रहा नगर   
झीलें रो रही हैं   
ओस की बूँदें सिसक रही हैं   
फूल खिलने से इन्कार कर रहा है   
आसमान का चाँद उगना नहीं चाहता   
रात ही नहीं, दिन में भी अमावस-सा अँधेरा है   
हवा बिलख रही है   
सूरज भी सांत्वना के बोल नहीं बोल पा रहा है। 
   
जाने किसने लगाई है ऐसी नज़र   
लाल किताब भी हो रहा बेअसर  
पतझर का मौसम नहीं बदल रहा   
न ज़रा भी तरस है उसकी नज़रों में   
न ज़रा भी कमज़ोर हो रही हैं उसकी बाहें   
हमरा सब छीनकर   
दु:साहस के साथ हमसे ठट्ठा कर रहा है   
अपनी ताक़त पर अहंकार से हँस रहा है   
अब और कितना बलिदान लेगा? 
  
ओ पतझर! अब तू चला जा   
हमारा हौसला अब टूट रहा है   
मुट्ठी से जीवन फिसल रहा है   
डरे-डरे-से हम, बेज़ार रो रहे हैं   
नियति के आगे अपाहिज हो गए हैं   
हर रोज़ हम ज़रा-ज़रा टूट रहे हैं   
हर रोज़ हम थोड़ा-थोड़ा मर रहे हैं। 
  
पतझर का यह मौसम   
कुछ माह नहीं, साल की सीमाओं से परे जा चुका है   
यह दूसरा साल भी सभी मौसमों पर भारी पड़ रहा है   
पतझर का यह मौसम, जाने कब बीतेगा?   
कब लौटेंगी बची-खुची ज़िन्दगी?   
जिससे लगे कि हम थोड़ा-सा जीवित हैं   

-जेन्नी शबनम (24.4.2021)
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रविवार, 18 अप्रैल 2021

717. प्रेम में होना

प्रेम में होना   

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प्रेम की पराकाष्ठा कहाँ तक   
बदन के घेरों में या मन के फेरों में?   
सुध-बुध बिसरा देना प्रेम है   
या स्वयं का बोध होना प्रेम है।
   
अनकहा प्रेम भी होता है   
न मिलाप, न अधिकार   
पर प्रेम है कि बहता रहता है   
अविरल और अविचलित।
    
प्रेम की परिभाषाएँ ढेरों गढ़ी गईं   
पर सबसे सटीक कोई नहीं   
अपने-अपने मन की आस्था   
अपने-अपने प्रेम की अवस्था। 
  
प्रेम अक्सर पा तो लिया जाता है   
पर वह लेन-देन तक सिमट जाता है   
हम सभी भूल गए हैं प्रेम का अर्थ   
लालसा में भटकता जीवन है व्यर्थ  
प्रेम का मूल तत्त्व बिसर गया है   
स्वार्थ की परिधि में प्रेम बिखर गया है। 
   
प्रेम पाया नहीं जाता 
प्रेम जबरन नहीं होता   
प्रेम किया नहीं जाता 
प्रेम में रहा जाता है   
प्रेम जीवन है   
प्रेम जिया जाता है।  

-जेन्नी शबनम (18.4.2021)
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शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

716. ज़िन्दगी भी ढलती है

ज़िन्दगी भी ढलती है 

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पीड़ा धीरे-धीरे पिघल, आँसुओं में ढलती है   
वक़्त की पाबन्दी है, ज़िन्दगी भी ढलती है।   

अजब व्यथा है, सुबह और शाम मुझमें नहीं   
बस एक रात ही तो है, जो मुझमें जगती है।   

चाहके भी समेट न पाई, तक़दीर अपनी   
बामुश्किल बसर हो जो, ज़िन्दगी क्यों मिलती है।   

मैं तो ठहरी रही, सदियों से ख़ुद में ही छुपके   
वक़्त की बेबसी, सदियाँ बेतहाशा उड़ती है।   

जाने क्यों हर रास्ता, मुझसे पीछे छूटा है   
मैं अनजानी, ज़िन्दगी बेअख्तियार उड़ती है।   

दिन की कहानी, मुमकिन ही कहाँ कि 'शब' बताए   
रात ज़िन्दगी उसकी, रात की कहानी कहती है।  

- जेन्नी शबनम (9. 4. 2021)

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