झाँकती खिड़की
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परदे की ओट से
इस तरह झाँकती है खिड़की
मानो कोई देख न ले
मन में आस भी और चाहत भी
काश! कोई देख ले।
परदे में हीरे-मोती हो, या हो कई पैबन्द
हर परदे की यही ज़िंदगानी है
हर झाँकती नज़रों में वही चाह
कच्ची हो, कि पक्की हो
हर खिड़की की यही कहानी है।
कौन पूछता है, खिड़की की चाह
अनचाहा-सा कोई
धड़धड़ाता हुआ पल्ला ठेल देता है
खिड़की बाहर झाँकना बंद कर देती है
आस मर जाती है
बाहर एक लम्बी सड़क है
जहाँ आवागमन है, ज़िन्दगी है
पर, खिड़की झाँकने की सज़ा पाती है
अब वह न बाहर झाँकती है
न उम्र के आईने को ताकती है।
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परदे की ओट से
इस तरह झाँकती है खिड़की
मानो कोई देख न ले
मन में आस भी और चाहत भी
काश! कोई देख ले।
परदे में हीरे-मोती हो, या हो कई पैबन्द
हर परदे की यही ज़िंदगानी है
हर झाँकती नज़रों में वही चाह
कच्ची हो, कि पक्की हो
हर खिड़की की यही कहानी है।
कौन पूछता है, खिड़की की चाह
अनचाहा-सा कोई
धड़धड़ाता हुआ पल्ला ठेल देता है
खिड़की बाहर झाँकना बंद कर देती है
आस मर जाती है
बाहर एक लम्बी सड़क है
जहाँ आवागमन है, ज़िन्दगी है
पर, खिड़की झाँकने की सज़ा पाती है
अब वह न बाहर झाँकती है
न उम्र के आईने को ताकती है।
- जेन्नी शबनम (1. 12. 2014)
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