उठो अभिमन्यु
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उचित वेला है
कितना कुछ जानना-समझना है
कैसे-कैसे अनुबंध करने हैं
पलटवार की युक्ति सीखनी है
तुम्हें मिटना नहीं है
उत्तरा अकेली नहीं रहेगी
परीक्षित अनाथ नहीं होगा
मेरे अभिमन्यु, उठो जागो
बिखरती संवेदनाओं को समेटो
आसमान की तरफ़ आशा से न देखो
आँखें मूँद घड़ी भर, ख़ुद को पहचानो।
क्यों चाहते हो, सम्पूर्ण ज्ञान गर्भ में पा जाओ
क्या देखा नहीं, अर्जुन-सुभद्रा के अभिमन्यु का हश्र
छः द्वार तो भेद लिए, लेकिन अंतिम सातवाँ
वही मृत्यु का कारण बना
या फिर सुभद्रा की लापरवाह नींद।
नहीं-नहीं, मैं कोई ज्ञान नहीं दूँगी
न किसी से सुनकर, तुम्हें बताऊँगी
तुम चक्रव्यूह रचना सीखो
स्वयं ही भेदना और निकलना सीख जाओगे
तुम सब अकेले हो, बिना आशीष
अपनी-अपनी मांद में असहाय
दूसरों की उपेक्षा और छल से आहत।
जान लो, इस युग की युद्ध-नीति-
कोई भी युद्ध अब सामने से नहीं
निहत्थे पर, पीठ पीछे से वार है
युद्ध के आरम्भ और अंत की कोई घोषणा नहीं
अनेक प्रलोभनों के द्वारा शक्ति हरण
और फिर शक्तिहीनों पर बल प्रयोग
उठो जागो! समय हो चला है
इस युग के अंत का
एक नई क्रांति का।
क़दम-क़दम पर एक चक्रव्यूह है
और क्षण-क्षण अनवरत युद्ध है
कहीं कोई कौरवों की सेना नहीं है
सभी थके हारे हुए लोग हैं
दूसरों के लिए चक्रव्यूह रचने में लीन
छल ही एक मात्र उनकी शक्ति
जाओ अभिमन्यु
धर्म-युद्ध प्रारंभ करो
बिना प्रयास हारना हमारे कुल की रीत नहीं
और पीठ पर वार धर्म-युद्ध नहीं
अपनी ढाल भी तुम और तलवार भी
तुम्हारे पक्ष में कोई युगपुरुष भी नहीं।
- जेन्नी शबनम (22. 6. 2013)
(अपने पुत्र के 20 वें जन्मदिन पर)
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