अन्तिम लक्ष्य
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यूँ लगता है
मैं बाढ़ में ज़मीन से उखड़ा हुआ कोई दरख़्त हूँ
नदी के पानी पर चल रही हूँ
चल नहीं रही, फिसल रही हूँ
जाने कहाँ टकराऊँ, कहाँ पार लगूँ
या किसी भँवर में फँसकर डूब जाऊँ।
मैं बाढ़ में ज़मीन से उखड़ा हुआ कोई दरख़्त हूँ
नदी के पानी पर चल रही हूँ
चल नहीं रही, फिसल रही हूँ
जाने कहाँ टकराऊँ, कहाँ पार लगूँ
या किसी भँवर में फँसकर डूब जाऊँ।
क्या मेरे अस्तित्व का कोई निशान होगा?
किसी को परवाह होगी?
कहाँ दफ़्न होना है, कहाँ क़ब्रगाह होगी
मुमकिन है मेरे मिटने के बाद नयी कहानी हो
यही अच्छा है मगर
न कोई निशानी हो, न कोई कहानी हो।
और भी लोग जीवन भर पानी में रह रहे हैं
जानती हूँ, मेरी तरह हज़ारों पेड़ बह रहे हैं
कोई-कोई पेड़ कहीं किसी साहिल से टकराकर
एक नई ज़मीन को पकड़कर ख़ुद को बचा लेगा
ख़ुद को लहरों की प्रलय से दूर हटा लेगा
जाने वह दरख़्त ख़ुशनसीब होगा या बदनसीब होगा
या मेरी ही तरह अनकही कहानियों के साथ
जीने को विवश होगा।
उफ! ये पानी क्यों नहीं समझता अपनी ताक़त
जबरन बहाए लिए जाता है
मुझे शक्तिहीनता का बोध कराता है
जानती हूँ मेरी ज़ात शक्तिहीन हो जाती है
अक्सर लाचार हो जाती है
कभी तन से कभी मन से
कभी दायित्व से कभी ममत्व से।
पानी पर फिसलते-फिसलते
मैं अब थक गई हूँ
मेरे रास्ते में न साहिल है न भँवर
न ज़मीं है न सहर
न आसमाँ न रात का क़मर
एक बाँध है जिसने रास्ता रोक रखा है
कहीं मिल न जाए समुन्दर।
अँधेरे के सफ़र पर पानी में बहती-उपटती हूँ
कई बार ख़ुद को ही दबोच लेने का मन होता है
किसी तरह बाँध की झिर्रियों से बहकर
दूर निकल जाने का मन करता है
समुन्दर अन्तिम लक्ष्य
समुन्दर अन्तिम सत्य है
समुन्दर में समा जाने का मन करता है।
राह में जो बाँध हाथ बाँधे खड़ा है
काश! वह मेरी राह न रोके
या फिर मुझे ऊपर खींच ले
और किसी बगान के कोने में
ज़रा-सी ज़मीन में मुझे रोप दे।
तन-मन मृत हो रहा है
आस लेकिन जीवित है।
-जेन्नी शबनम (30.1.24)
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