गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

214. ज़ख़्मी पहर

ज़ख़्मी पहर

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वक़्त का एक ज़ख़्मी पहर
लहू संग ज़ेहन में समाकर
जकड़ लिया है मेरी सोच

कुछ बोलूँ
वो पहर अपने ज़ख़्म से
रंग देता है मेरे हर्फ़

चाहती हूँ
कभी किसी वक़्त कह पाऊँ
कुछ रूमानी
कुछ रूहानी-सी बात

पर नहीं
शायद कभी नहीं
ज़ख़्मी वक़्त से
मुक्ति नहीं

नहीं कह पाऊँगी
ऐसे अल्फ़ाज़
जो किसी को बना दे मेरा
और पा सकूँ
कोई सुखद एहसास!

- जेन्नी शबनम (31. 12. 2010)
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