बुधवार, 12 दिसंबर 2012

376. कहो ज़िन्दगी (पुस्तक 95)

कहो ज़िन्दगी

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कहो ज़िन्दगी 
आज का क्या संदेश है 
किस पथ पे जाना शुभ है
किन राहों पे अशुभ घड़ी का दोष है?
कहो ज़िन्दगी   
आज कौन-सा दिन है
सोम है या शनि है
उजालों का राज है या, अँधेरों का मायाजाल है
स्वप्न और दुःस्वप्न का, क्या आपसी क़रार है?
कहो ज़िन्दगी  
अभी कौन-सा पहर है, सुबह है या रात है
या कि ढलान पर उतरती 
ज़िन्दगी की आख़िरी पदचाप है?
अपनी कसी मुट्ठियों में, टूटते भरोसे की टीस 
किससे छुपा रही हो?
मालूम तो है, यह संसार पहुँच से दूर है 
फिर क्यों चुप हो, अशांत हो?
अनभिज्ञ नहीं तुम 
फिर भी लगता है, जाने क्यों 
तुम्हारी ख़ुद से, नहीं कोई पहचान है 
कहों ज़िन्दगी  
क्या यही हो तुम?
सवाल दागती, सवालों में घिरी 
ख़ुद सवाल बन, अपने जवाब तलाशती 
सारे जवाब ज़ाहिर हैं, फिर भी 
पूछने का मन है- 
कहो ज़िन्दगी तुम्हारा कैसा हाल है?

- जेन्नी शबनम (12. 12. 2012)
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मंगलवार, 20 नवंबर 2012

375. रिश्ते (16 क्षणिकाएँ)

रिश्ते 

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1.
बेनाम रिश्ते 
***
कुछ रिश्ते बेनाम होते हैं
जी चाहता है  
कुछ नाम रख ही दूँ 
क्या पता किसी ख़ास घड़ी में  
उसे पुकारना ज़रूरी पड़ जाए
जब नाम के सभी रिश्ते नाउम्मीद कर दें   
और बस एक आखिरी उम्मीद वही हो...


2.
बेकाम रिश्ते 
***
कुछ रिश्ते बेकाम होते हैं
जी चाहता है  
भट्टी में उन्हें जला दूँ 
और उसकी राख को अपने आकाश में 
बादल-सा उड़ा दूँ 
जो धीरे-धीरे उड़ कर धूल-कणों में मिल जाएँ 
बेकाम रिश्ते बोझिल होते हैं 
बोझिल ज़िन्दगी आख़िर कब तक...


3.
बेशर्त रिश्ते 
***
कुछ रिश्ते बेशर्त होते हैं 
बिना किसी अपेक्षा के जीते हैं 
जी चाहता है 
अपने जीवन की सारी शर्तें 
उन पर निछावर कर दूँ 
जब तक जिऊँ बेशर्त रिश्ते निभाऊँ...


4.
बासी रिश्ते 
***
कुछ रिश्ते बासी होते हैं 
रोज़ गर्म करने पर भी नष्ट हो जाते हैं
और अंततः बास आने लगती है 
जी चाहता है 
पोलीथीन में बंद कर कूड़ेदान में फेंक दूँ 
ताकि वातावरण दूषित होने से बच जाए...


5.
बेकार रिश्ते 
***
कुछ रिश्ते बेकार होते हैं 
ऐसे जैसे दीमक लगे दरवाज़े  
जो भीतर से खोखले पर साबुत दिखते हों 
जी चाहता है 
दरवाज़े उखाड़कर आग में जला दूँ 
और उनकी जगह शीशे के दरवाज़े लगा दूँ  
ताकि ध्यान से कोई ज़िन्दगी में आए 
कहीं दरवाज़ा टूट न जाए...


6.
शहर-से रिश्ते 
***
कुछ रिश्ते शहर-से होते हैं
जहाँ अनचाहे ठहरे होते हैं लोग  
जाने कहाँ-कहाँ से आकर बस जाते हैं 
बिना उसकी मर्जी पूछे  
जी चाहता है 
सभी को उसके-उसके गाँव भेज दूँ 
शहर में भीड़ बढ़ गई है...
  

7.
बर्फ़-से रिश्ते 
***
कुछ रिश्ते बर्फ़-से होते हैं 
आजीवन जमे रहते हैं 
जी चाहता है 
इस बर्फ की पहाड़ी पर चढ़ जाऊँ
और अनवरत मोमबत्ती जलाए रहूँ 
ताकि धीरे-धीरे, ज़रा-ज़रा-से पिघलते रहे...


8.
अजनबी रिश्ते 
***
कुछ रिश्ते अजनबी होते हैं
हर पहचान से परे 
कोई अपनापन नहीं 
कोई संवेदना नहीं
जी चाहता है 
इनका पता पूछ कर 
इन्हें बैरंग लौटा दूँ...


9.
ख़ूबसूरत रिश्ते 
***
कुछ रिश्ते खूबसूरत होते हैं 
इतने कि खुद की भी नज़र लग जाती है
जी चाहता है 
इनको काला टीका लगा दूँ 
लाल मिर्च से नज़र उतार दूँ 
बुरी नज़र... जाने कब... किसकी...


10.
बेशक़ीमती रिश्ते 
***
कुछ रिश्ते बेशकिमती होते हैं
जौहरी बाज़ार में ताखे पे सजे हुए 
कुछ अनमोल 
जिन्हें खरीदा नहीं जा सकता 
जी चाहता है 
इनपर इनका मोल चिपका दूँ 
ताकि देखने वाले इर्ष्या करें...


11.
आग-से रिश्ते 
***
कुछ रिश्ते आग-से होते हैं
कभी दहकते हैं, कभी धधकते हैं  
अपनी ही आग में जलते हैं  
जी चाहता है 
ओस की कुछ बूँदें  
आग पर उड़ेल दूँ
ताकि धीमे-धीमे सुलगते रहें...



12.
चाँद-से रिश्ते 
*** 
कुछ रिश्ते चाँद-से होते हैं
कभी अमावस तो कभी पूर्णिमा 
कभी अन्धेरा कभी उजाला 
जी चाहता है 
चाँदनी अपने पल्लू में बाँध लूँ 
और चाँद को दिवार पे टाँग दूँ 
कभी अमावस नहीं...


13.
फूल-से रिश्ते 
***
कुछ रिश्ते फूल-से होते हैं
खिले-खिले बारहमासी फूल की तरह 
जी चाहता है 
उसके सभी काँटों को 
ज़मीन में दफ़न कर दूँ 
ताकि कभी चुभे नहीं 
ज़िन्दगी सुगन्धित रहे 
और खिली-खिली...



14.
रिश्ते ज़िन्दगी 
***
कुछ रिश्ते ज़िन्दगी होते हैं
ज़िन्दगी यूँ ही जीवन जीते हैं 
बदन में साँस बनकर 
रगों में लहू बनकर 
जी चाहता है 
ज़िन्दगी को चुरा लूँ 
और ज़िन्दगी चलती रहे यूँ ही...


15.
अनुभूतियों के रिश्ते 
***
रिश्ते फूल, तितली, जुगनू, काँटे...
रिश्ते चाँद, तारे, सूरज, बादल...
रिश्ते खट्टे, मीठे, नमकीन, तीखे...
रिश्ते लाल, पीले, गुलाबी, काले, सफ़ेद, स्याह... 
रिश्ते कोमल, कठोर, लचीले, नुकीले...
रिश्ते दया, माया, प्रेम, घृणा, सुख, दुःख, ऊर्जा...
रिश्ते आग, धुआँ, हवा, पानी...
रिश्ते गीत, संगीत, मौन, चुप्पी, शून्य, कोलाहल...  
रिश्ते ख्वाब, रिश्ते पतझड़, रिश्ते जंगल, रिश्ते बारिश...
रिश्ते स्वर्ग, रिश्ते नरक...
रिश्ते बोझ, रिश्ते सरल...
रिश्ते मासूम, रिश्ते ज़हीन... 
रिश्ते फरेब, रिश्ते जलील...


16.
ज़िन्दगी रिश्ते, रिश्ते ज़िन्दगी 
***
रिश्ते उपमाओं-बिम्बों से सजे
संवेदनाओं से घिरे 
रिश्ते, रिश्ते होते हैं 
जैसे समझो
रिश्ते वैसे होते हैं...
ज़िन्दगी रिश्ते  
रिश्ते ज़िन्दगी...

- जेन्नी शबनम (16. 11. 2012)
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मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

374. आज़ादी (पुस्तक 81)

आज़ादी

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आज़ादी
कुछ-कुछ वैसी ही है 
जैसे छुटपन में, पाँच पैसे से ख़रीदा हुआ लेमनचूस 
जिसे खाकर मन खिल जाता था,  
खुले आकाश तले, तारों को गिनती करती  
वो बुढ़िया 
जिसने सारे कर्त्तव्य निबाहे, और अब बेफ़िक्र, बेघर 
तारों को मुट्ठियों में भरने की ज़िद कर रही है
उसके जिद्दी बच्चे 
इस पागलपन को देख, कन्नी काटकर निकल लेते हैं
क्योंकि उम्र और अरमान का नाता वो नहीं समझते, 
आज़ाद तो वो भी हैं 
जिनके सपने अनवरत टूटते रहे  
और नये सपने देखते हुए 
हर दिन घूँट-घूँट, अपने आँसू पीते हुए  
पुण्य कमाते हैं,
आज़ादी ही तो है  
जब सारे रिश्तों से मुक्ति मिल जाए  
यूँ भी, नाते मुफ़्त में जुड़ते कहाँ है?
स्वाभिमान का अभिनय 
आख़िर कब तक?

- जेन्नी शबनम (16. 10. 2012)
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बुधवार, 10 अक्टूबर 2012

373. नया घोसला (चोका - 3)

नया घोसला 

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प्यारी चिड़िया 
टुक-टुक देखती  
टूटा घोसला 
फूटे जो सारे अंडे
सारे के सारे 
मरे अजन्मे चूजे, 
चीं-चीं करके
फिर चिड़िया रोती
सहमी हुई  
हताश निहारती  
अपनी पीड़ा 
वो किससे बाँटती
धीर धरती ।
जोड़-जोड़ तिनका
बसेरा बसा 
कितने बरस व 
मौसम बीते
अब सब बिखरा 
कुछ न बचा 
जिसे कहे आशियाँ,
बचे न निशाँ
पुराना झरोखा व
मकान टूटा 
अब घोसला कहाँ ?
चिड़िया सोचे -
चिड़ा जब आएगा 
वो भी रोएगा 
अपनी चिड़िया का
दर्द सुनेगा
मनुष्य की क्रूरता 
चुप सहेगा 
संवेदना का पाठ 
वो सिखाएगा !
चिड़ा आया दौड़ के 
चीं-चीं सुनके
फिर सिसकी ले के 
आँसू पोछ के 
चिड़ी बोली चिड़े से -
चलो बसाएँ 
आओ तिनके लाएँ 
नया घोसला 
हम फिर सजाएँ
ठिकाना खोजें 
शहर से दूर हो 
जंगल करीब हो !

- जेन्नी शबनम (सितम्बर 29, 2012)

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रविवार, 23 सितंबर 2012

372. मन छुहारा (7 ताँका)

मन छुहारा (7 ताँका)

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1.
अपनी आत्मा 
रोज़-रोज़ कूटती 
औरत ढ़ेंकी 
पर आस सँजोती
अपनी पूर्णता की !

2.
मन पिंजरा
मुक्ति की आस लगी   
उड़ना चाहे 
जाए तो कहाँ जाए
दुनिया तड़पाए !

3.
न देख पीछे 
सब अपने छूटे
यही रिवाज़
दूरी है कच्ची राह 
मन के नाते पक्के !

4.
ज़िन्दगी सख्त
रोज़-रोज़ घिसती
मगर जीती 
पथरीली राहों पे 
निशान है छोड़ती !

5. 
मन छुहारा
ज़ख़्म सह-सह के
बनता सख्त
रो-रो कर हँसना 
जीवन का दस्तूर !  

6.
मन जुड़ाता 
गर अपना होता 
वो परदेसी 
उमर भले बीते 
पर आस न टूटे ! 

7.
लहलहाते 
खेत औ खलिहान 
हरी धरती 
झूम-झूम है गाती
खुशहाली के गीत !

- जेन्नी शबनम (सितम्बर 10, 2012)

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मंगलवार, 18 सितंबर 2012

371. फ़र्ज़ की किस्त

फ़र्ज़ की किस्त 

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लाल, पीले, गुलाबी 
सपने बोना चाहती थी
जिन्हें तुम्हारे साथ 
उन पलों में तोडूँगी 
जब सारे सपने खिल जाएँ 
और ज़िन्दगी से हारे हुए हम 
इसके बेहद ज़रूरतमंद हों। 
पल-पल ज़िन्दगी बाँटना चाहती थी
सिर्फ़ तुम्हारे साथ
जिन्हें तब जियूँगी   
जब सारे फ़र्ज़ पूरे कर 
हम थक चुके हों
और हम दूसरों के लिए 
बेकाम हो चुके हों।  

हर तजरबे बतलाना चाहती थी
ताकि समझ सकूँ दुनिया को 
तुम्हारी नज़रों से 
जब मुश्किल घड़ी में 
कोई राह न सूझे 
हार से पहले एक कोशिश कर सकूँ
जिससे जीत न पाने का मलाल न हो। 

जानती हूँ 
चाहने से कुछ नहीं होता 
तक़दीर में विफलता हो तो 
न सपने पलते हैं 
न ज़िन्दगी सँवरती है 
न ही तजरबे काम आते हैं। 

निढ़ाल होती मेरी ज़िन्दगी    
फ़र्ज़ अदा करने के क़र्ज़ में 
डूबती जा रही है
और अपनी सारी चाहतों से 
फ़र्ज़ की किस्त 
मैं तन्हा चुका रही हूँ। 

- जेन्नी शबनम (18. 9. 2012)
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सोमवार, 27 अगस्त 2012

370. मालिक की किरपा (पुस्तक - 88)

मालिक की किरपा

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धुआँ-धुआँ, ऊँची चिमनी 
गीली मिट्टी, साँचा, लथपथ बदन  
कच्ची ईंट, पक्की ईंट, और ईंट के साथ पकता भविष्य, 
ईंटों का ढेर
एक-दो-तीन-चार 
सिर पर एक ईंट, फिर दो, फिर दो की ऊँची पंक्ति 
खाँसते-खाँसते, जैसे साँस अटकती है  
ढनमनाता-घिसटता, पर बड़े एहतियात से   
ईंटों को सँभालकर उतारता 
एक भी टूटी, तो कमर टूट जाएगी,
रोज़ तो गोड़ लगता है ब्रह्म स्थान का  
बस साल भर और 
इसी साल तो, बचवा मैट्रिक का इम्तहान देगा
चौड़ा-चकईठ है, सबको पछाड़ देगा 
मालिक पर भरोसा है, बहुत पहुँच है उनकी 
मालिक कहते हैं-   
गाँठ में दम हो तो सब हो जाएगा,
एक-एक ईंट, जैसे एक-एक पाई 
एक-एक पाई, जैसे बचवा का भविष्य
जानता है, न उसकी मेहरारू ठीक होगी, न वो 
एक भी ढेऊआ डाक्टर को देके, काहे बर्बाद करे कमाई
ये भी मालूम है
साल दू साल और बस...
हरिद्वार वाले बाबा का दिया जड़ी-बूटी है न 
अगर नसीब होगा, बचवा का, सरकारी नौकरी का सुख देखेगा,
अपना तो फ़र्ज़ पूरा किया 
बाक़ी मालिक की किरपा...!
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ढनमनाता - डगमगाता 
गोड़ - पैर 
ढेऊआ - धेला / पैसा 
किरपा - कृपा
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- जेन्नी शबनम (1. 5. 2009)
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बुधवार, 22 अगस्त 2012

369. कुछ सुहाने पल (मेरा प्रथम चोका) (चोका - 1)

कुछ सुहाने पल... 
(मेरा प्रथम चोका)

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मुट्ठी में बंद 
कुछ सुहाने पल
ज़रा लजाते  
शरमा के बताते 
पिया की बातें
हसीन मुलाकातें  
प्यारे-से दिन  
जग-मग-सी रातें 
सकुचाई-सी 
झुकी-झुकी नज़रें
बिन बोले ही 
कह गई कहानी 
गुदगुदाती 
मीठी-मीठी खुशबू
फूलों के लच्छे 
जहाँ-तहाँ खिलते  
रात चाँदनी 
अँगना में पसरी
लिपट कर 
चाँद से फिर बोली -
ओ मेरे मीत  
झीलों से भी गहरे
जुड़ते गए 
ये तेरे-मेरे नाते
भले हों दूर
न होंगे कभी दूर     
मुट्ठी ज्यों खोली
बीते पल मुस्काए 
न बिसराए  
याद हमेशा आए
मन को हुलासाए !

- जेन्नी शबनम (जुलाई 30, 2012)

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शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

368. संगतराश (पुस्तक - 82)

संगतराश

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बोलो संगतराश! 
आज कौन-सा रूप तुम्हारे मन में है?
कैसे सवाल उगे हैं तुममें?
अपने जवाब के अनुरूप बुत तराशते हो तुम 
और बुत को एक दिल भी थमा देते हो 
ताकि जीवन्त दिखे तुम्हें, 
पिंजड़े में क़ैद तड़फड़ाते पंछी की तरह  
जिसे सबूत देना है कि वह साँसें भर सकता है 
लेकिन उसे उड़ने की इजाज़त नहीं, न सोचने की। 
संगतराश! तुम बुत में अपनी कल्पनाएँ गढ़ते हो
चेहरे के भाव में अपने भाव मढ़ते हो
अपनी पीड़ा उसमें उड़ेल देते हो 
न एक शिरा ज़्यादा, न एक बूँद आँसू कम
तुम बहुत हुनरमन्द शिल्पकार हो,
कला की निशानी, जो रोज़-रोज़ तुम रचते हो 
अपने तहख़ाने में सजाकर रख देते हो  
जिसके जिस्म की हरकतों में सवाल नहीं उपजते हैं 
क्योंकि सवाल दागने वाले बुत तुम्हें पसन्द नहीं,
तमाम बुत, तुम्हारी इच्छा से आकार लेते हैं 
तुम्हारी सोच से भंगिमाएँ बदलते हैं  
और बस तुम्हारे इशारे को पहचानते हैं। 
ओ संगतराश!
कुछ ऐसे बुत भी बनाओ 
जो आग उगल सके 
पानी को मुट्ठी में समेट ले 
हवा का रुख़ मोड़ दे
और ऐसे-ऐसे सवालों के जवाब ढूँढ लाए  
जिसे ऋषि-मुनियों ने भी न सोचा हो
न किसी धर्म ग्रन्थ में चर्चा हो,
अपनी क्षमता दिखाओ संगतराश 
गढ़ दो, आज की दुनिया के लिए 
कुछ इंसानी बुत!

- जेन्नी शबनम (15. 8. 2012)
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बुधवार, 15 अगस्त 2012

367. स्वतंत्रता दिवस (स्वतन्त्रता दिवस पर 20 हाइकु) पुस्तक 26-28

स्वतंत्रता दिवस 
(स्वतन्त्रता दिवस पर 20 हाइकु)

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1.
आई आज़ादी 
अहिंसा के पथ से
बापू का मार्ग। 

2.
फूट के रोए
देख के बदहाली 
वे बलिदानी। 

3.
डूब रही है 
सब मिल बचाओ
देश की नैया। 

4.
सोई है आत्मा 
स्वतंत्रता बाद भी 
ग़ुलाम मन। 

5.
कौन जो रोके 
चिथड़ों में बँटती 
हमारी ज़मीं। 

6.
वीर सिपाही 
जिनका बलिदान 
देश भुलाया।  

7.
देश को मिली 
भला कैसी आज़ादी?
मन ग़ुलाम।  

8.
हम आज़ाद 
तिरंगा लहराए 
सम्पूर्ण देश।  

9.
तिथि पंद्रह
अगस्त सैंतालिस 
देश-स्वतंत्र।  

10.
जनता ताके 
अमन की आशा से 
देश की ओर।  

11.
हमारा नारा 
भारत महान का 
सुने दुनिया।  

12.
सौंप गए वे 
आज़ाद हिन्दुस्तान 
ख़ुद मिटके

13.
आज़ादी संग  
ज़मीन-मन बँटे
दो टुकड़ों में।  

14.
मिली आज़ादी 
तिरंगा लहराया 
लाल किले पे।  

15.
गूँजी दिशाएँ 
वंदे मातरम से 
सम्पूर्ण देश।  

16.
जश्न मनाओ 
देश का त्योहार है 
आज़ादी-पर्व।  

17.
विस्मृत हुए 
अमर बलिदानी 
अपनों द्वारा।   

18.
हमको मिली 
भौगोलिक आज़ादी
मन ग़ुलाम। 

19.
स्वाधीन देश 
जिनकी बदौलत
नमन उन्हें।   

20.
जश्न मनाओ  
सब मिलके गाओ 
आज़ादी-गीत। 

- जेन्नी शबनम (15. 8. 2012)
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सोमवार, 13 अगस्त 2012

366. त्योहार का मौसम

त्योहार का मौसम 

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ऐ सुनो!   
तुम कहते हो   
हमारी बातें, त्योहार का मौसम 
कब आएगा, बताओ ये मौसम?   
हज़ारों बातें, मीठी यादें   
अब भी बंद है   
लकड़ी वाली पिटारी में   
जिसकी कुंजी खो गई थी   
पिछले बरस के त्योहार में   
ढेरों किस्से, मेरे हिस्से   
तह पड़े मेरी पिटारी में   
उमर ठिठकी, बरस बीता   
फिर भी न आता, ये त्योहार क्यों?   
ऐ कहो!   
कब तुड़वाने लाऊँ पिटारी   
कब तक रखूँ सँभाल के?   
दीवाली बीती, होली बीती   
बीता सावन, भादो भी   
अब भी नहीं आता   
बोलो ये त्योहार क्यों?   
ऐ सुनो!   
तुम कहते हो 
हमारी बातें, त्योहार का मौसम 
बताओ, कब आएगा   
ये त्योहार का मौसम।    

- जेन्नी शबनम (13. 8. 2012) 
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रविवार, 12 अगस्त 2012

365. कृष्ण पधारे (कृष्ण जन्माष्टमी पर 7 हाइकु) पुस्तक 25, 26

कृष्ण पधारे (कृष्ण जन्माष्टमी पर 7 हाइकु)

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1.
भादो अष्टमी 
चाँद ने आँखें मूँदी
कृष्ण पधारे।  

2.
पाँव पखारे 
यशोदा के लाल के  
यमुना नदी। 

3.
रास रचाने 
वृन्दावन पधारे 
श्याम साँवरे। 

4.
मृत्यु निश्चित
अवतरित कृष्ण 
कंस का भय। 

5.
मथुरा जेल 
बेड़ियों में देवकी 
कृष्ण का जन्म। 

6.
अवतरित 
धर्म की रक्षा हेतु 
स्वयं ईश्वर।  

7.
सात बहनें 
परलोक सिधारी 
मोहन जन्मे। 

- जेन्नी शबनम (10. 8. 2012)
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शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

364. यादें (क्षणिका)

यादें

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यादें, बार-बार सामने आकर 
अपूर्ण स्वप्न का अहसास कराती हैं 
कभी-कभी मीठी-सी टीस दे जाती हैं 
कचोटती तो हर हाल में है, चाहे सुख चाहे दुःख 
शायद रुलाने के लिए यादें, ज़ेहन में जीवित रहती हैं। 

- जेन्नी शबनम (10. 8. 2012)
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बुधवार, 8 अगस्त 2012

363. सिर्फ़ मेरा (क्षणिका)

सिर्फ़ मेरा

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ज़िन्दगी का अर्थ, किस मिट्टी में ढूँढें?
कौन कहे कि आ जाओ मेरे पास 
रिश्ते नाते अपने पराये, सभी बेपरवाह
किनसे कहें, एक बार याद करो मुझे, सिर्फ़ मेरे लिए 
बहुत चाहता है मन, कहीं कोई अपना, जो सिर्फ़ मेरा

- जेन्नी शबनम (8. 8. 2012)
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शनिवार, 4 अगस्त 2012

362. मन किया

मन किया

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आज फिर से
तुम्हें जी लेने का मन किया
तुम्हारे लम्स के दायरे में
सिमट जाने का मन किया 
तुम्हारी यादों के कुछ हसीन पल
चुन-चुनकर 
मुट्ठी में भर लेने का मन किया
जिन राहों से हम गुज़रे थे 
साथ-साथ कभी 
फिर से गुज़र जाने का मन किया
शबनमी कतरे सुलगते रहे रात भर
जिस्म की सरहदों के पार जाने का मन किया 
पोर-पोर तुम्हें पी लेने का मन किया 
आज फिर से 
तुम्हें जी लेने का मन किया। 

- जेन्नी शबनम (4. 8. 2012)
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गुरुवार, 2 अगस्त 2012

361. रक्षा बंधन (राखी पर10 ताँका)

रक्षा बंधन (राखी पर 10 ताँका)

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1.
पावन पर्व 
दुलारा भैया आया 
रक्षा बंधन 
बहन ने दी दुआ 
बाँध रेशमी राखी !

2.
राखी त्योहार  
सुरक्षा का वचन 
भाई ने दिया 
बहना चहकती 
उपहार माँगती !

3.
राखी का पर्व 
सावन का महीना 
पीहर आई 
नन्हे भाई की दीदी 
बाँधा स्नेह का धागा !

4.
आँखों में पानी 
बहन है पराई 
सूनी कलाई
कौन सजाये अब 
भाई के माथे रोली !

5.
पूरनमासी 
सावन का महीना 
राखी त्योहार 
रक्षा-सूत्र ने बाँधा 
भाई-बहन नेह ! 

6.
घर परिवार
स्वागत में तल्लीन 
मंगल पर्व
राखी-रोली-मिठाई 
बहनों ने सजाई !  

7.
शोभित राखी 
भाई की कलाई पे
बहन बाँधी  
नेह जो बरसाती 
नेग भी है माँगती !

8.
प्यारा बंधन 
अनोखा है स्पंदन 
भाई-बहन
खुशियाँ हैं अपार
आया राखी त्योहार ! 

9.
चाँद चिंहुका 
सावन का महीना 
पूरा जो खिला
भैया दीदी के साथ 
राखी मनाने आया !

10.
बहन भाई 
बड़े ही आनंदित 
नेग जो पाया
बहन से भाई ने     
राखी जो बँधवाई !

- जेन्नी शबनम (अगस्त 2, 2012)

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360. राखी पर्व (राखी पर 15 हाइकु) पुस्तक- 23-25

राखी पर्व
(राखी पर 15 हाइकु)

*******

1.
भैया न जाओ
मेरी बलाएँ ले लो 
राखी बँधा लो। 

2.
बाट जोहते
अक्षत, धागे, टीका 
राखी जो आई।  

3.
बहन देती 
हाथों पे बाँध राखी  
भाई को दुआ। 

4.
राखी का सूत
बहनों ने माना 
रक्षा-कवच। 

5.
बहना खिली
रखिया बँधवाने   
भैया जो आया। 

6.
रंग-बिरंगी 
कतारबद्ध-राखी 
दूकानें सजी। 

7.
पावन पर्व
ये बहन भाई का  
रक्षा बंधन। 

8.
भूले त्योहार 
आपसी व्यवहार  
बढ़ा व्यापार।  

9.
चुलबुली-सी
कुदकती बहना 
राखी जो आई।   

10.
भाई का प्यार
राखी-पर्व जो आता  
याद दिलाता !

11.
मन भी सूना  
किसको बाँधे राखी 
भाई पीहर!

12.
नहीं सुहाता 
सब नाता जो टूटा  
रक्षा-बंधन। 

13,
नन्ही कलाई 
बहना ने सजाई 
देती दुहाई। 

14.
भाई है आया 
ये धागा खींच लाया  
है मज़बूत। 

15.
राखी जो आई  
भाई को खींच लाई  
बहना-घर। 

- जेन्नी शबनम (1. 8. 2012)
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शनिवार, 28 जुलाई 2012

359. साढ़े तीन हाथ की धरती

साढ़े तीन हाथ की धरती

***

आकाश में उड़ते पंछी   
कटी-पतंगों की भाँति   
ज़मीन पर आ गिरते हैं। 
   
नरक के द्वार में बिना प्रवेश   
तेल की कड़ाह में जलना   
जाने किस जन्म का पाप   
इस जन्म में भोगना है। 
   
दीवार पर खूँटी से टँगी   
एक जोड़ा कठपुतली को   
जाने किस तमाशे का इन्तिज़ार है। 
   
ठहाके लगाती छवि   
और प्रसंशा में सौ-सौ सन्देश    
अनगिनत सवालों का   
बस एक मूक जवाब   
हौले-से मुस्कान है। 
   
उफ़! कोई कैसे समझे?   
अन्तरिक्ष से झाँककर देखा   
चाँद और पृथ्वी   
और उस जलती अग्नि को भी   
जो कभी पेट में जलती है   
तो कभी जिस्म को जलाती है। 
  
इस आग से पककर   
कहीं किसी कचरे के ढेर में   
नवजात का बिलबिलाना   
दोनों हाथों को बाँधकर   
किसी की उम्र की लकीरों से   
पाई-पाई का हिसाब खुरचना। 
   
ओह! तपस्या किस पर्वत पर?   
अट्टहास कानों तक पहुँच   
मन को उद्वेलित कर देता है   
टीस भी और क्रोध भी   
पर कृतघ्नता को बर्दाश्त करते हुए   
पार जाने का हिसाब-किताब   
मन को सालता है। 
   
आह! कौन है जो अडिग नहीं होता?   
साढ़े तीन हाथ की धरती   
बस आख़िरी इतना-सा ख़्वाब।    

-जेन्नी शबनम (28.7.2012) 
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गुरुवार, 26 जुलाई 2012

358. साझी कविता (पुस्तक- 40)

साझी कविता

*******

साझी कविता, रचते-रचते 
ज़िन्दगी के रंग को, साझा देखना
साझी चाह है, या साझी ज़रूरत?
साझे सरोकार भी हो सकते हैं 
और साझे सपने भी, मसलन 
प्रेम, सुख, समाज, नैतिकता, पाप, दंड, भूख, आत्मविश्वास 
और ऐसे ही अनगिनत-से मसले, 
जवाब साझे तो न होंगे
क्योंकि सवाल अलग-अलग होते हैं
हमारे परिवेश से संबद्ध 
जो हमारी नसों को उमेठते हैं 
और जन्म लेती है साझी कविता,
कविता लिखना एक कला है
जैसे कि ज़िन्दगी जीना  
और कला में हम भी बहुत माहिर हैं
कविता से बाहर भी  
और ज़िन्दगी के अंदर भी!

- जेन्नी शबनम (26. 7. 2012)
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मंगलवार, 24 जुलाई 2012

357. सात पल

सात पल

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मुट्ठी में वर्षों से बंद
वक़्त का हर एक लम्हा 
कब गिर पड़ा 
कुछ पता न चला 
महज़ सात पल रह गए 
क्योंकि उन पलों को
मैं हथेली की जीवन रेखा में 
नाखून से कुरेद-कुरेदकर 
ठूँस दी थी 
ताकि 
कोई भी बवंडर इसे छीन न सके, 
उन सात पलों में 
पहला पल 
जब मैंने ज़िन्दगी को देखा 
दूसरा
जब ज़िन्दगी ने मुझे अपनाया 
तीसरा 
जब ज़िन्दगी ने दूर चले जाने की ज़िद की
चौथा 
जब ज़िन्दगी मेरे शहर से बिना मिले लौट गई
पाँचवा  
जब ज़िन्दगी के शहर से मुझे लौटना पड़ा 
छठा 
जब ज़िन्दगी से वो सारे समझौते किए जो मुझे मंज़ूर न थे   
सातवाँ 
जब ज़िन्दगी को अलविदा कह दिया, 
अब कोई आठवाँ पल नहीं आएगा 
न रुकेगा मेरी लकीरों में 
न टिक पाएगा मेरी हथेली में 
क्योंकि मैं मुट्ठी बंद करना छोड़ दी हूँ। 

- जेन्नी शबनम (21. 7. 2012)
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रविवार, 22 जुलाई 2012

356. हरियाली तीज (तीज पर 5 हाइकु) पुस्तक- 23

हरियाली तीज 
(तीज पर 5 हाइकु)

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1.
शिव-सा वर
हर नारी की चाह
करती तीज

2.
मनाए है स्त्री 
हरितालिका तीज
पति चिरायु

3.
करे कामना- 
हो अखण्ड सुहाग 
मनाए तीज

4.
सावन आया
पीहर में रौनक 
उमड़ पड़ी 

5.
पेड़ों पे झूला  
सुहाना है मौसम 
खिला सावन 

- जेन्नी शबनम (22. 7. 2012)
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शनिवार, 14 जुलाई 2012

355. बनके प्रेम-घटा (4 सेदोका)

बनके प्रेम-घटा 
(4 सेदोका)

******* 

1.
मन की पीड़ा 
बूँद-बूँद बरसी
बदरी से जा मिली  
तुम न आए 
साथ मेरे रो पड़ीं  
काली घनी घटाएँ !

2.
तुम भी मानो 
मानती है दुनिया-
ज़िन्दगी है नसीब
ठोकरें मिलीं  
गिर-गिर सँभली
ज़िन्दगी है अजीब !  

3.
एक पहेली 
उलझनों से भरी 
किससे पूछें हल ? 
ज़िन्दगी है क्या 
पूछ-पूछके हारे 
ज़िन्दगी है मुश्किल ! 

4.
ओ प्रियतम !
बनके प्रेम-घटा 
जीवन पे छा जाओ 
प्रेम की वर्षा 
निरंतर बरसे
जीवन में आ जाओ !

- जेन्नी शबनम (जुलाई 13, 2012)

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गुरुवार, 12 जुलाई 2012

354. जीवन-शास्त्र

जीवन-शास्त्र

***

सुना है 
गति और परिवर्तन ज़िन्दगी है
और यह भी कि 
जिनमें विकास और क्रियाशीलता नहीं 
वो मृतप्राय हैं। 
 
फिर मैं?
मेरा परिवर्तन ज़िन्दगी क्यों नहीं था?
अब मैं स्थिर और मौन हूँ
मुझमें कोई रासायनिक परिवर्तन नहीं
और न गतिशील हूँ। 
   
सुना है 
अब मैं सभ्य-सुसंस्कृत हो गई हूँ  
सम्पूर्णता से ज़िन्दगी को भोग रही हूँ 
गुरुओं का मान रखा है। 

भौतिक परिवर्तन, रासायनिक परिवर्तन
कोई मंथन नहीं, कोई रहस्य नहीं
भौतिक, रासायनिक और सामाजिक शास्त्र 
जीवन-शास्त्र नहीं। 

-जेन्नी शबनम (12.7.2012)
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गुरुवार, 21 जून 2012

353. कासे कहे

कासे कहे

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मद्धिम लौ 
जुगनू ज्यों
वही सूरज
वही जीवन
सब रीता
पर बीता!
जीवन यही
रीत  यही
पीर पराई
भान नहीं
सब खोया 
मन रोया!
कठिन घड़ी
कैसे कटी
मन तड़पे  
कासे कहे
नहीं अपना 
सब पराया!
तनिक पूछो
क्यों चाहे
मूक पाखी
कोई साथी
एक बसेरा
कोई सहारा!

- जेन्नी शबनम (21. 6. 2012)
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रविवार, 17 जून 2012

352. ओ मेरे बाबा (पितृ-दिवस पर 5 हाइकु) पुस्तक - 22, 23

ओ मेरे बाबा 
(पितृ-दिवस पर 5 हाइकु)

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1.
ओ मेरे बाबा!
तुम हो गए स्वप्न 
छोड़ जो गए।

2.
बेटी का बाबा
गर साथ न छूटे  
देता हौसला।

3.
तोतली बोली 
जो बिटिया ने बोली 
निहाल बाबा।

4.
बाबा तो गए 
अब किससे रूठूँ
कौन मनाए?

5.
सिर पे छाँव
कोई भी हो मौसम  
बाबा आकाश।

- जेन्नी शबनम (17. 6. 2012)
(पितृ दिवस पर हाइकु)
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शुक्रवार, 15 जून 2012

351. मैं कहीं नहीं

मैं कहीं नहीं

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हर बार की तरह
निष्ठुर बन, फिर चले गए तुम
मुझे मेरे प्रश्नों में जलने के लिए छोड़ गए  
वो प्रश्न जिसके उत्तर तलाशती हुई मैं
एक बार जैसे नदी बन गई थी 
और बिरहा के आँसू, बरखा की बूंदों में लपेट-लपेटकर 
नदी में प्रवाहित कर रही थी
और ख़ुद से पूछती रही, क्या सिर्फ मैं दोषी हूँ?

क्या उस दिन मैंने कहा था कि 
चलो चलकर चखें उस झील के पानी को
जिसमें सुना है 
कभी किसी राजा ने अपनी प्रेमिका के संग 
ठिठुरते ठण्ड में स्नान किया था 
ताकि काया कंचन-सी हो जाए
और अनन्त काल तक वे चिर युवा रहें।  

वो पहला इशारा भी तुमने ही किया 
कि चलो चाँदनी को मुट्ठी में भर लें
क्या मालूम मुफ़लिसी के अँधेरों का 
जाने कब ज़िन्दगी में अँधियारा भर जाए
मुट्ठी खोल एक दूसरे के मुँह पर झोंक देंगे 
होठ ख़ामोश भी हो 
मगर आँखें तो देख सकेंगी एक झलक। 

और उस दिन भी तो तुम ही थे न
जिसने चुपके से कानों में कहा था-
''मैं हूँ न, मुझसे बाँट लिया करो अपना दर्द''
अपना दर्द भला कैसे बाँटती तुमसे
तुमने कभी ख़ुशी भी सुननी नहीं चाही 
क्योंकि मालूम था तुम्हें, मेरे जीवन का अमावस
जानती थी, तुमने कहने के लिए सिर्फ़ कहा था 
''मैं हूँ न'' मानने के लिए नहीं। 

एक दिन कहा था तुमने  
''वक़्त के साथ चलो''
मन में बहुत रंजिश है तुम्हारे लिए भी 
और वक़्त के लिए भी 
फिर भी चल रही हूँ वक़्त के साथ 
रोज़-रोज़ प्रतीक्षा की मियाद बढ़ाते रहे तुम
मेरे संवाद और संदेश फ़ुज़ूल होते गए 
वक़्त के साथ चलने का मेरा वादा, अब भी क़ायम है  
सवाल करना तुम ख़ुद से कभी  
कोई वादा कब तोड़ा मैंने?
वक़्त से बाहर कब गई भला?
क्या उस वक़्त, मैं वक़्त के साथ नहीं चली थी?

कितनी लंबी प्रतीक्षा
और फिर जब सुना ''मैं हूँ न'' 
उसके बाद ये सब कैसे
क्या सारी तहज़ीब भूल गए?
मेरे सँभलने तक रुक तो सकते थे 
या इतना कहकर जाते 
''मैं कहीं नहीं''
कम-से-कम प्रतीक्षा का अंत तो होता।  

तुम बेहतर जानते हो 
मेरी ज़िन्दगी तो तब भी थी, तुम्हारे ही साथ
अब भी है, तुम्हारे ही साथ
फ़र्क यह है कि तुम अब भी नहीं जानते मुझे  
और मैं, तुम्हें कतरा-कतरा जीने में 
सर्वस्व पी चुकी हूँ। 

- जेन्नी शबनम (10. 6. 2012)
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गुरुवार, 7 जून 2012

350. पाप-पुण्य

पाप-पुण्य

***

पाप-पुण्य के फ़ैसले का भार 
क्यों नहीं परमात्मा पर छोड़ते हो  
क्यों पाप-पुण्य की मान्य परिभाषाओं में उलझकर 
क्षण-क्षण जीवन व्यर्थ गँवाते हो
जबकि परमात्मा की सत्ता पर पूर्ण भरोसा करते हो।  

हर बार एक द्वन्द्व में उलझ जाते हो
और फिर अपने पक्ष की सत्यता को प्रमाणित करने 
कभी सत्ययुग, कभी त्रेता, कभी द्वापर तक पहुँच जाते हो 
जबकि कलयुगी प्रश्न तुम्हारे होते हैं  
और अपने मुताबिक़ पूर्व निर्धारित उत्तर देते हो। 

एक भटकती ज़िन्दगी बार-बार पुकारती है
बेबुनियाद सन्देहों और पूर्व नियोजित तर्क के साथ 
बहुत चतुराई से बच निकलना चाहते हो  
कभी सोचा कि पाप की परिधि में क्या-क्या हो सकते हैं
जिन्हें त्यागकर पुण्य कमा सकते हो। 

इतना सहज नहीं होता 
पाप-पुण्य का मूल्यांकन स्वयं करना 
किसी का पाप किसी और का पुण्य भी हो सकता है 
निश्चित ही पाप-पुण्य की कसौटी कर्त्तव्य पर टिकी है 
जिसे पाप माना, वास्तव में उससे पुण्य कमा सकते हो। 

-जेन्नी शबनम (7.6.2012)
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बुधवार, 6 जून 2012

349. पंचों का फ़ैसला

पंचों का फ़ैसला

***

कुछ शब्द उन पंचों के समान
उच्च आसन पर बैठे हैं
जिनके फ़ैसले सदैव निष्पक्ष होने चाहिए
ऐसी मान्यता है। 
 
सामने कुछ अनसुलझे प्रश्न पड़े हैं, विचारार्थ
वादी-प्रतिवादी, कुछ सबूत, कुछ गवाह
सैकड़ों की संख्या में उद्वेलित भीड़। 
 
अंततः पंचों का फ़ैसला
निर्विवाद, निर्विरोध 
उन सबके विरुद्ध 
जिनके पास पैदा करने की शक्ति है
चाहे जिस्म हो या ज़मीन। 

फ़रमान-
बेदख़ल कर दो 
बाँट दो! काट दो! लूट लो!

- जेन्नी शबनम (6.6.2012)
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शुक्रवार, 1 जून 2012

348. आईने का भरोसा क्यों

आईने का भरोसा क्यों

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प्रतिबिम्ब अपना-सा दिखता नहीं   
फिर बार-बार क्यों देखना?   
आईने को तोड़ निकल आओ बाहर   
किसी भी मौसम को   
आईने के शिनाख़्त की ज़रूरत नहीं,   
कौन जानना चाहता है   
क्या-क्या बदलाव हुए?   
क्यों हुए?   
वक़्त की मार थी   
या अपना ही साया साथ छोड़ गया   
किसने मन को तोड़ा   
या सपनों को रौंद दिया,   
आईने की ग़ुलामी 
किसने सिखाई?   
क्यों सिखाई?   
जैसे-जैसे वक़्त ने मिज़ाज बदले   
तन बदलता रहा   
मौसम की अफ़रा-तफ़री   
मन की गुज़ारिश नहीं थी, 
फिर आईने का भरोसा क्यों?   

- जेन्नी शबनम (1. 6. 2012)
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सोमवार, 28 मई 2012

347. मुक्ति

मुक्ति 

******* 

शेष है अब भी कुछ मुझमें   
जो बाधा है मुक्ति के लिए   
सबसे विमुख होकर भी   
स्वयं अपने आप से 
नहीं हो पा रही मुक्त।    

प्रतीक्षारत हूँ, शायद कोई दुःसाहस करे   
और भर दे मेरी शिराओं में खौलता रक्त    
जिसे स्वयं मैंने ही, बूँद-बूँद निचोड़ दिया था   
ताकि पार जा सकूँ हर अनुभूतियों से   
और हो सकूँ मुक्त। 
   
चाहती हूँ, कोई मुझे पराजित मान   
अपने जीत के दम्भ से   
एक बार फिर मुझसे युद्ध करे   
और मैं दिखा दूँ कि हारना मेरी स्वीकृति थी   
शक्तिहीनता नहीं   
मैंने झोंक दी थी अपनी सारी ऊर्जा   
ताकि निष्प्राण हो जाए मेरी आत्मा   
और हो सकूँ मुक्त।   

समझ गई हूँ   
पलायन से नहीं मिलती है मुक्ति   
न परास्त होने से मिलती है मुक्ति   
संघर्ष कितना भी हो पर   
जीवन-पथ पर चलकर   
पार करनी होती है, नियत अवधि   
तभी खुलता है द्वार और मिलती है मुक्ति।   

- जेन्नी शबनम (26. 5. 2012) 
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गुरुवार, 24 मई 2012

346. कभी न मानूँ (पुस्तक - 48)

कभी न मानूँ

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जी चाहता है, विद्रोह कर दूँ 
अबकी जो रूठूँ, कभी न मानूँ
मनाता तो यूँ भी नहीं कोई 
फिर भी बार-बार रूठती हूँ 
हर बार स्वयं ही मान जाती हूँ
जानती हूँ कि मेरा रूठना 
कोई भूचाल नहीं लाता 
न तो पर्वत को पिघलाता है 
न प्रकृति कर जोड़ती है 
न जीवन आह भरता है 
देह की सभी भंगिमाएँ
यथावत रहती हैं 
दुनिया सहज चलती है
मन रूठता है, मन टूटता है 
मन मनाता है, मन मानता है 
और ये सिर्फ़ मेरा मन जानता है 
हर बार रूठकर, ख़ुद को ढाढ़स देती हूँ 
कि शायद इस बार, किसी को फ़र्क पड़े 
और कोई आकार मनाए 
और मैं जानूँ कि मैं भी महत्वपूर्ण हूँ
पर अब नहीं 
अब तो यम से ही मानूँगी  
विद्रोह का बिगुल 
बज उठा है। 

- जेन्नी शबनम (24. 5. 2012)
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शनिवार, 12 मई 2012

345. कैसे बनूँ शायर

कैसे बनूँ शायर 

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मैं नहीं हूँ शायर 
जो शब्दों को पिरोकर कोई ख़्वाब सजाऊँ
नज़्मों और ग़ज़लों में दुनिया बसाऊँ
मुझको नहीं दिखता, चाँद में महबूब
चाँद दिखता है यों जैसे रोटी हो गोल 
मैं नहीं हूँ शायर, जो बस गीत रचूँ   
दुनिया को भूल, प्रिय की बाहों को जन्नत कहूँ

मुझको दिखती है, ज़िन्दगी की लाचारियाँ 
पंक्तिबद्ध खड़ी दुश्वारियाँ 
क़त्ल होती कोख की बेटियाँ
सरेआम बिक जाती, मिट जाती माँ की दुलारियाँ
ख़ुद को महफ़ूज़ रखने में नाकामयाब कलियाँ
मुझे दिखता है, सूखे सीने से चिपका मासूम
और भूख से कराहती उसकी माँ
वैतरणी पार कराने के लिए क़र्ज़ में डूबा 
किसी बेवा का बेटा
और वह भी, जिसे आरक्षण नाम के दैत्य ने 
कल निगल लिया   
क्योंकि उसकी जाति, उसका अभिशाप थी  
और हरजाने में उसे अपनी ज़िन्दगी देनी पड़ी

कैसे सोचूँ कि एक दिन ज़िन्दगी  
सुनहरे रथ पर चलकर पाएगी, सपनों की मंज़िल   
जहाँ दुःख-दर्द से परे कोई संसार है
मुझे दिखता है, किसी बुज़ुर्ग की झुर्रियों में 
वक़्त की नाराज़गी का दंश  
अपने कोखजनों से मिले दुत्कार और निर्भरता का अवसाद
मुझे दिखता है, उनका अतीत और वर्तमान 
जो अक्सर मेरे वर्तमान और भविष्य में तब्दील हो जाता है

मन तो मेरा भी चाहता है
तुम्हारी तरह शायर बन जाऊँ 
प्रेम-गीत रचूँ और ज़िन्दगी बस प्रेम-ही-प्रेम हो  
पर तुम ही बताओ, कैसे लिखूँ तुम्हारी तरह शायरी 
तुमने तो प्रेम में हज़ारों नज़्में लिख डालीं   
प्रेम की पराकाष्ठा के गीत रच डाले 
निर्विरोध, अपना प्रेम-संसार बसा लिया
मैं किसके लिए लिखूँ प्रेम-गीत?
नहीं सहन होता बार-बार हारना, सपनों का टूटना 
छले जाने के बाद फिर से उम्मीद जगाना
डरावनी दुनिया को देखकर 
आँखें मूँद सो जाना और सुन्दर सपनों में खो जाना

मेरी ज़िन्दगी तो यही है 
लोमड़ी और गिद्धों की महफ़िल से बचने के उपाय ढूँढूँ 
अपने अस्तित्व के बचाव के लिए 
साम, दाम, दण्ड, भेद अपनाते हुए 
अपनी आत्मा को मारकर 
इस शरीर को जीवित रखने के उपक्रम में रोज़-रोज़ मरूँ
मैं शायर नहीं 
बन पाना मुमकिन भी नहीं  
तुम ही बताओ, कैसे बनूँ मैं शायर 
कैसे लिखूँ, प्रेम या ज़िन्दगी। 

- जेन्नी शबनम (12.5.2012)
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