अब न ऊ देवी है न कड़ाह
सरेह से अभी-अभी लौटे हैं
*******
गोड़ में कादो-माटी, अँचरा में लोर
दउरी में दू ठो रोटी-नून-मर्चा
जाने काहे आज मन नहीं किया
कुछो खाने का
न कौनो से बतियाने का
भोरे से मन बड़ा उदास है
मालिक रहते त आज इ दिन देखना न पड़ता
आसरा छूट जाए, त केहू न अपन
दू बखत दू-दू गो रोटी आ दू गो लूगा (साड़ी)
इतनो कौनो से पार न लगा
अपन जिनगी लुटा दिए
मालिक चले गए
कूट पीस के बाल बच्चा पोसे, हाकिम बनाए
अब इ उजर लूगा
आ भूईयाँ पर बईठ के खाने से
सबका इज्जत जाता है
अपन मड़इए ठीक
मालिक रहते त का मजाल जे कौनो आँख तरेरता
भोरे से अनाज उसीनाता
आ दू सेर धान-कुटनी ले जाती
अब दू कौर के लिए
भोरे-भोरे, सरेहे-सरेहे...
आह!
अब न ऊ देवी है न कड़ाह।
- जेन्नी शबनम (8. 3. 13)
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर)
____________________