रविवार, 12 दिसंबर 2010

195. मेरे साथ-साथ चलो

मेरे साथ-साथ चलो

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तुम कहते हो तो चलो
पर एक क़दम फ़ासले पर नहीं
मेरे साथ-साथ चलो,
मुझे भी देखनी है वो दुनिया
जहाँ तुम पूर्णता से रहते हो 


तुमने तो महसूस किया है
जलते सूरज की नर्म किरणें
तपते चाँद की शीतल चाँदनी
तुमने तो सुना है
हवाओं का प्रेम गीत 
नदियों का कलरव
तुमने तो देखा है
फूलों की मादक मुस्कान 
जीवन का इन्द्रधनुष 

तुम तो जानते हो
शब्दों को कैसे जगाते हैं और
मनभावन कविता कैसे रचते हैं,
यह भी जान लो मेरे मीत
जो बातें अनकहे मैं तुमसे कहती हूँ
और जिन सपनों की मैं ख़्वाहिशमंद हूँ 

मैं भी जीना चाहती हूँ, उन सभी एहसासों को
जिन्हें तुम जीते हो और मेरे लिए चाहते हो
पर एक क़दम फ़ासले पर नहीं
मेरे साथ-साथ चलो 

- जेन्नी शबनम (12. 12. 2010)
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194. हार (क्षणिका)

हर हार मुझे और हराती है

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आज मैं ख़ाली-ख़ाली-सी हूँ, अपने अतीत को टटोल रही
तमाम चेष्टा के बाद भी बिखरने से रोक न पायी
नहीं मालूम जीने का हुनर क्यों न आया?
अपने सपनों को पालना क्यों न आया?
जानती हूँ मेरी विफलताओं का आरोप मुझ पर ही है
मेरी हार का दंश मुझे ही झेलना है
पर मेरे सपनों की परिणति, पीड़ा तो देती है न!
हर हार, मुझे और हराती है

- जेन्नी शबनम (9. 12. 2010)
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