बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज
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बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज
क्यों चारों पहर ये जलता है,
दो पल चैन से सो लूँ मैं भी
क्या उसका मन नहीं करता है?
बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज
क्यों चारों पहर ये जलता है।
देस परदेस भटकता रहता
घड़ी भर को नहीं ठहरता है,
युगों से है वो ज्योत बाँटता
मगर कभी नहीं वह घटता है।
बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज
क्यों चारों पहर ये जलता है।
कभी गुर्राता कभी मुस्काता
खेल धूप-छाँव का चलता है,
आँखें बड़ी-सी ये मटकाता
जब बादलों में वह छुपता है।
बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज
क्यों चारों पहर ये जलता है।
कभी ठंडा कभी गरम होता
हर मौसम-सा रूप धरता है,
शोला-किरण दोनों बरसाता
मगर ख़ुद कभी नहीं जलता है।
बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज
क्यों चारों पहर ये जलता है।
जाने कितने ख़्वाब सँजोता
वो हर दिन घर से निकलता है,
युगों-युगों से ख़ुद को जलाता
वो सबके लिए ये सहता है।
बुझ क्यों नहीं जाता है सूरज
क्यों चारों पहर ये जलता है।
- जेन्नी शबनम (14. 11. 2016)
(बाल दिवस)
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