सोमवार, 5 दिसंबर 2011

303. अपनी-अपनी धुरी (पुस्तक - 106)

अपनी-अपनी धुरी

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अपनी-अपनी धुरी पर चलते, पृथ्वी और ग्रह-नक्षत्र
जीवन-मरण हो या समय का रथ
नियत है सभी की गति, धुरी और चक्र। 
बस एक मैं, अपनी धुरी पर नहीं चलती
कभी लगाती अज्ञात के चक्कर
कभी वर्जित क्षेत्रों में घुस
मंथर तो कभी विद्युत से भी तेज
अपनी ही गति से चलती। 
न जाने क्यों इतनी वर्जनाएँ हैं
जिन्हें तोड़ना सदैव कष्टप्रद है
फिर भी उसे तोड़ना पड़ता है
अपने जीने के लिए, धुरी से हटकर चलना पड़ता है। 
बिना किसी धुरी पर चलना
सदैव भय पैदा करता है
चोट खाने की प्रबल संभावना होती है
कई बार सिर्फ़ पीड़ा नहीं मिलती, आनन्द भी मिलता है
पर कहना कठिन है
आने वाला पल किस दशा में ले जाएगा
जीवन को कौन-सी दिशा देगा
जीवन सँवरेगा, या फिर सदा के लिए बिखर जाएगा। 
कैसे समझूँ, बिना धुरी के लक्ष्यहीन पथ
नियति है या मेरी वांछित जीवन दिशा
जिस पर चलकर, पहुँच जाऊँगी, किसी धुरी पर
और चल पडूँगी, नियत गति से
बिना डगमगाए, अपनी राह
जो मेरे लिए पहले से निर्धारित है। 

- जेन्नी शबनम (4. 12. 2011)
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