कपट
***
हाँ कपट ही तो है
सत्य से भागना, सत्य न कहना, पलायन करना
पर यह भी सच है, सत्य की राह में
बखेड़ों के मेले हैं, झमेलों के रेले हैं
कोई कैसे कहे सारे सत्य, जो दफ़्न हो सीने में
उम्र की थकान के, मन के अरमान के
सदियों-सदियों से, युगों-युगों से।
यों तो मिलते हैं कई मुसाफ़िर
दो पल ठहरकर राज़ पूछते हैं
दमभर को अपना कहते, फिर चले जाते हैं
उम्मीद तोड़ जाते हैं, राह पर छोड़ जाते हैं।
काश! कोई तो थम जाता, छोड़कर न जाता
मन की यायावरी को एक ठौर दे जाता।
ये कपट, ये भटकाव मन को नहीं भाते हैं
पर इनसे बच भी कहाँ पाते हैं
यों हँसी में हर राज़ दफ़्न हो जाते हैं
फिर कहना क्या और पूछना क्या, सब बेमानी है
ऐसे ही बीत जाता है, सम्पूर्ण जीवन
किसी की आस में, ठहराव की उम्मीद में।
हम सब इसी राह के मुसाफ़िर, मत पूछो सत्य
गर कोई जान न सके, बिन कहे पहचान न सके
यह उसकी कमी है
सत्य तो प्रगट है, कहा नहीं जाता, समझा जाता है
फिर भी लोग इसरार करते हैं।
सत्य को शब्द न दें, हँसकर टाल दें, तो कपटी कहते हैं
ठीक ही कहते हैं वे, हम कपटी हैं, कपटी!
-जेन्नी शबनम (3.11.2020)
____________________