रविवार, 10 जुलाई 2011

264. आत्मकथा

आत्मकथा

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एक सदी तक चहकती फिरी
घर आँगन गलियों में
थी कथा परियों की
और जीवन फुदकती गौरैया-सी।   

दूसरी सदी में आ बसी
हर कोने चौखट चौबारे में
कण-कण में बिछती रही
बगिया में ख़ुशबू-सी।    

तीसरी सदी तक आ पहुँची
घर की गौरैया अब उड़ जाएगी
घर आँगन होगा सूना
याद बहुत आएगी
कोई गौरैया है आने को
अपनी दूसरी सदी में जीने को
कण-कण में समाएगी
घर आँगन वो खिलाएगी।  

ख़ुद को अब समेट रही
बिखरे निशाँ पोंछ रही
यादों में कुछ दिन जीना है
चौथी सदी बिताना है
फिर तस्वीर में सिमट जाना है।   

जाने कैसी ये आत्मकथा
मेरी उसकी सबकी
एक जैसी है
खिलना बिछना सिमटना
ख़त्म होती यूँ
गौरैया की कहानी है।   

- जेन्नी शबनम (30. 5. 2011)
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