सोमवार, 28 मई 2012

347. मुक्ति

मुक्ति 

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शेष है अब भी कुछ मुझमें   
जो बाधा है मुक्ति के लिए   
सबसे विमुख होकर भी   
स्वयं अपने आप से 
नहीं हो पा रही मुक्त।    

प्रतीक्षारत हूँ, शायद कोई दुःसाहस करे   
और भर दे मेरी शिराओं में खौलता रक्त    
जिसे स्वयं मैंने ही, बूँद-बूँद निचोड़ दिया था   
ताकि पार जा सकूँ हर अनुभूतियों से   
और हो सकूँ मुक्त। 
   
चाहती हूँ, कोई मुझे पराजित मान   
अपने जीत के दम्भ से   
एक बार फिर मुझसे युद्ध करे   
और मैं दिखा दूँ कि हारना मेरी स्वीकृति थी   
शक्तिहीनता नहीं   
मैंने झोंक दी थी अपनी सारी ऊर्जा   
ताकि निष्प्राण हो जाए मेरी आत्मा   
और हो सकूँ मुक्त।   

समझ गई हूँ   
पलायन से नहीं मिलती है मुक्ति   
न परास्त होने से मिलती है मुक्ति   
संघर्ष कितना भी हो पर   
जीवन-पथ पर चलकर   
पार करनी होती है, नियत अवधि   
तभी खुलता है द्वार और मिलती है मुक्ति।   

- जेन्नी शबनम (26. 5. 2012) 
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गुरुवार, 24 मई 2012

346. कभी न मानूँ (पुस्तक - 48)

कभी न मानूँ

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जी चाहता है, विद्रोह कर दूँ 
अबकी जो रूठूँ, कभी न मानूँ
मनाता तो यूँ भी नहीं कोई 
फिर भी बार-बार रूठती हूँ 
हर बार स्वयं ही मान जाती हूँ
जानती हूँ कि मेरा रूठना 
कोई भूचाल नहीं लाता 
न तो पर्वत को पिघलाता है 
न प्रकृति कर जोड़ती है 
न जीवन आह भरता है 
देह की सभी भंगिमाएँ
यथावत रहती हैं 
दुनिया सहज चलती है
मन रूठता है, मन टूटता है 
मन मनाता है, मन मानता है 
और ये सिर्फ़ मेरा मन जानता है 
हर बार रूठकर, ख़ुद को ढाढ़स देती हूँ 
कि शायद इस बार, किसी को फ़र्क पड़े 
और कोई आकार मनाए 
और मैं जानूँ कि मैं भी महत्वपूर्ण हूँ
पर अब नहीं 
अब तो यम से ही मानूँगी  
विद्रोह का बिगुल 
बज उठा है। 

- जेन्नी शबनम (24. 5. 2012)
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शनिवार, 12 मई 2012

345. कैसे बनूँ शायर

कैसे बनूँ शायर 

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मैं नहीं हूँ शायर 
जो शब्दों को पिरोकर कोई ख़्वाब सजाऊँ
नज़्मों और ग़ज़लों में दुनिया बसाऊँ
मुझको नहीं दिखता, चाँद में महबूब
चाँद दिखता है यों जैसे रोटी हो गोल 
मैं नहीं हूँ शायर, जो बस गीत रचूँ   
दुनिया को भूल, प्रिय की बाहों को जन्नत कहूँ

मुझको दिखती है, ज़िन्दगी की लाचारियाँ 
पंक्तिबद्ध खड़ी दुश्वारियाँ 
क़त्ल होती कोख की बेटियाँ
सरेआम बिक जाती, मिट जाती माँ की दुलारियाँ
ख़ुद को महफ़ूज़ रखने में नाकामयाब कलियाँ
मुझे दिखता है, सूखे सीने से चिपका मासूम
और भूख से कराहती उसकी माँ
वैतरणी पार कराने के लिए क़र्ज़ में डूबा 
किसी बेवा का बेटा
और वह भी, जिसे आरक्षण नाम के दैत्य ने 
कल निगल लिया   
क्योंकि उसकी जाति, उसका अभिशाप थी  
और हरजाने में उसे अपनी ज़िन्दगी देनी पड़ी

कैसे सोचूँ कि एक दिन ज़िन्दगी  
सुनहरे रथ पर चलकर पाएगी, सपनों की मंज़िल   
जहाँ दुःख-दर्द से परे कोई संसार है
मुझे दिखता है, किसी बुज़ुर्ग की झुर्रियों में 
वक़्त की नाराज़गी का दंश  
अपने कोखजनों से मिले दुत्कार और निर्भरता का अवसाद
मुझे दिखता है, उनका अतीत और वर्तमान 
जो अक्सर मेरे वर्तमान और भविष्य में तब्दील हो जाता है

मन तो मेरा भी चाहता है
तुम्हारी तरह शायर बन जाऊँ 
प्रेम-गीत रचूँ और ज़िन्दगी बस प्रेम-ही-प्रेम हो  
पर तुम ही बताओ, कैसे लिखूँ तुम्हारी तरह शायरी 
तुमने तो प्रेम में हज़ारों नज़्में लिख डालीं   
प्रेम की पराकाष्ठा के गीत रच डाले 
निर्विरोध, अपना प्रेम-संसार बसा लिया
मैं किसके लिए लिखूँ प्रेम-गीत?
नहीं सहन होता बार-बार हारना, सपनों का टूटना 
छले जाने के बाद फिर से उम्मीद जगाना
डरावनी दुनिया को देखकर 
आँखें मूँद सो जाना और सुन्दर सपनों में खो जाना

मेरी ज़िन्दगी तो यही है 
लोमड़ी और गिद्धों की महफ़िल से बचने के उपाय ढूँढूँ 
अपने अस्तित्व के बचाव के लिए 
साम, दाम, दण्ड, भेद अपनाते हुए 
अपनी आत्मा को मारकर 
इस शरीर को जीवित रखने के उपक्रम में रोज़-रोज़ मरूँ
मैं शायर नहीं 
बन पाना मुमकिन भी नहीं  
तुम ही बताओ, कैसे बनूँ मैं शायर 
कैसे लिखूँ, प्रेम या ज़िन्दगी। 

- जेन्नी शबनम (12.5.2012)
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रविवार, 6 मई 2012

344. चाँद का दाग़ (क्षणिका)

चाँद का दाग़

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ऐ चाँद! तेरे माथे पर जो दाग़ है 
क्या मैंने तुम्हें मारा था? 
अम्मा कहती है- मैं बहुत शैतान थी 
और कुछ भी कर सकती थी। 

- जेन्नी शबनम (6. 5. 2012)
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