कतर दिया
- जेन्नी शबनम (1. 3. 2013)
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क्या-क्या न कतर दिया
कभी सपने क्या-क्या न कतर दिया
कभी आवाज़
कभी ज़िन्दगी
और तुम हो कि
किसी बात की कद्र ही नहीं करते
हर दिन एक नए कलेवर के साथ
एक नई शिकायत
कभी मेरे चुप होने पर
कभी चुप न होने पर
कभी सपने देखने पर
कभी सपने न देखने पर
कभी तहज़ीब से ज़िन्दगी जीने पर
कभी बेतरतीब ज़िन्दगी जीने पर
हाँ, मालूम है
सब कुछ कतर दिया
पर तुम-सी बन न पाई
तुम्हारी रंजिश बस यही है।
- जेन्नी शबनम (1. 3. 2013)
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