स्त्री जानती है
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उलझनें मिलती हैं, पर कम उलझती है
स्त्री ये जानती है, स्त्री सब समझती है कब कहाँ कितना बोलना है
कब कहाँ कितना छुपाना है
क्या दिल में दफ़्न करना है
क्या दुनिया को कहना है
बेबाक़ बातें स्त्री नहीं कर सकती
मन की हर बात नहीं कह सकती
लग जाएँगे बेहयाई के इल्ज़ाम
हो जाएगी अपने ही घर में बदनाम
जान चली जाए पर मन खोल सकती नहीं
बेबाक़ बातें स्त्री नहीं कर सकती
मन की हर बात नहीं कह सकती
लग जाएँगे बेहयाई के इल्ज़ाम
हो जाएगी अपने ही घर में बदनाम
जान चली जाए पर मन खोल सकती नहीं
झूठ कहती नहीं, सच अक्सर बोल सकती नहीं
उम्र बीत जाए पर मनचाहा नहीं कर सकती
फूल उगा सकती है, पर तितलियाँ नहीं पकड़ सकती
अपने मन की बातें अपने मन तक
अपने दुख अपने एहसास अपने तक
रिश्ते समेटते-समेटते ख़ुद बिखरती है
कोई नहीं समझता स्त्री कितना टूटती है, मरती है
हज़ारों शोक, मगर स्त्री के आँसू नापसन्द हैं
हँसती-खिलखिलाती स्त्री सबकी पसन्द है
जन्म से मिली इस विरासत को ढोना है
अपने मन की बातें अपने मन तक
अपने दुख अपने एहसास अपने तक
रिश्ते समेटते-समेटते ख़ुद बिखरती है
कोई नहीं समझता स्त्री कितना टूटती है, मरती है
हज़ारों शोक, मगर स्त्री के आँसू नापसन्द हैं
हँसती-खिलखिलाती स्त्री सबकी पसन्द है
जन्म से मिली इस विरासत को ढोना है
स्त्री को इन्सान नहीं केवल स्त्री होना है
और स्त्री की स्त्री होने की यह अकथ्य पीड़ा है।
और स्त्री की स्त्री होने की यह अकथ्य पीड़ा है।
-जेन्नी शबनम (8.3.2024)
(अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस)
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2 टिप्पणियां:
सच है सुन्दर
सुंदर रचना
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