बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

22. मुहब्बत! पहला लफ़्ज़

मुहब्बत! पहला लफ़्ज़

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मुहब्बत ही था पहला लफ़्ज़, जो कहा तुमने   
अजनबी थे, जब पहली ही बार हम मिले थे।   
कुछ भी साथ नहीं, क्षत-विक्षत मन था   
जाने कब-कब, कहाँ-कहाँ, किसने तोड़ा था।   
सारे टुकड़ों को, उस दिन से समेट रही   
आख़िर किस टुकड़े से कहा था तुमने, सोच रही।   
रावण के सिर-सा, मेरे मन का टुकड़ा   
बढ़ता जा रहा, फैलता जा रहा।   
अपने एक साबुत मन को, तलाशने में   
जिस्म और वक़्त थकता जा रहा।   
तुम्हीं ढूँढ़ दो न, मैं कैसे पहचानूँ?   
ख़ुद को भी भूल चुकी, अब मैं क्या करूँ?   
तुम्हें तो पहचान होगी न उसकी   
तुम्हीं ने तो देखा था उसे पहली बार।   
हज़ारों में से एक को पहचाना था तुमने   
तभी तो कहा था तुमने   
मुहब्बत का लफ़्ज़, पहली बार।

- जेन्नी शबनम (24. 2. 2009)
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