तीर वापस नहीं होते
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जानते हुए कि हर बार और दूर हो जाती हूँ
तल्ख़ी से कहते हो मुझे कि मैं गुनहगार हूँ
मुमकिन है कि मन में न सोचते होओ
महज़ आक्रोश व्यक्त करते होओ
या फिर मुझे बाँधे रखने का ये कोई हथियार हो
या मेरे आत्मबल को तोड़ने की ये तरक़ीब हो
लेकिन मेरे मन में ये बात समा जाती है
हर बार ज़िन्दगी चौराहे पर नज़र आती है।
हर बार लगाए गए आरोपों से उलझते हुए
धीरे-धीरे तुमसे दूर होते हुए
मेरी अपनी एक अलग दुनिया है
जहाँ अब तक बहुत कुछ सबसे छुपा है
वहाँ की वीरानगी में सिमटती जा रही हूँ
ख़ामोशियों से लिपटती जा रही हूँ
भले तुम न समझ पाओ कि
मैं कितनी अकेली होती जा रही हूँ
न सिर्फ़ तुमसे बल्कि
अपनी ज़िन्दगी से भी नाता तोड़ती जा रही हूँ।
तुम्हारी ये कैसी ज़िद है
या कि अहम् है
क्यों कटघरे में अक्सर खड़ा कर देते हो
जाने किस बात की सज़ा देते हो
जानते हो न
जैसे कमान से निकले तीर वापस नहीं होते
वैसे ही
ज़बान से किए वार वापस नहीं होते।
- जेन्नी शबनम (11. 5. 2011)
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जानते हुए कि हर बार और दूर हो जाती हूँ
तल्ख़ी से कहते हो मुझे कि मैं गुनहगार हूँ
मुमकिन है कि मन में न सोचते होओ
महज़ आक्रोश व्यक्त करते होओ
या फिर मुझे बाँधे रखने का ये कोई हथियार हो
या मेरे आत्मबल को तोड़ने की ये तरक़ीब हो
लेकिन मेरे मन में ये बात समा जाती है
हर बार ज़िन्दगी चौराहे पर नज़र आती है।
हर बार लगाए गए आरोपों से उलझते हुए
धीरे-धीरे तुमसे दूर होते हुए
मेरी अपनी एक अलग दुनिया है
जहाँ अब तक बहुत कुछ सबसे छुपा है
वहाँ की वीरानगी में सिमटती जा रही हूँ
ख़ामोशियों से लिपटती जा रही हूँ
भले तुम न समझ पाओ कि
मैं कितनी अकेली होती जा रही हूँ
न सिर्फ़ तुमसे बल्कि
अपनी ज़िन्दगी से भी नाता तोड़ती जा रही हूँ।
तुम्हारी ये कैसी ज़िद है
या कि अहम् है
क्यों कटघरे में अक्सर खड़ा कर देते हो
जाने किस बात की सज़ा देते हो
जानते हो न
जैसे कमान से निकले तीर वापस नहीं होते
वैसे ही
ज़बान से किए वार वापस नहीं होते।
- जेन्नी शबनम (11. 5. 2011)
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15 टिप्पणियां:
वाह! उम्दा रचना.
bilkul sahi kaha apne...
जानते हुए कि हर बार और और दूर हो जाती हूँ
तल्ख़ी से कहते हो मुझे कि मैं गुनाहगार हूँ,
मुमकिन है कि मन में न सोचते होओ
महज़ आक्रोश व्यक्त करते होओ,
या फिर मुझे बांधे रखने का ये कोई हथियार हो
या मेरे आत्मबल को तोड़ने की ये तरकीब हो,
लेकिन मेरे मन में ये बात समा जाती है
हर बार ज़िन्दगी चौराहे पर नज़र आती है,
yah apne mann ki uthalputhal hai, jise maan le jeene ke liye
सच कहा…………कुछ तीर कभी वापस नही होते।
जानते हो न
कमान से निकले तीर वापस नहीं होते,
वैसे हीं
ज़ुबान से किये वार वापस नहीं होते !
सच कहा है.... अच्छी रचना...
"भले तुम न समझ पाओ कि
मैं कितनी अकेली होती जा रही हूँ,
न सिर्फ तुमसे बल्कि
अपनी ज़िन्दगी से भी नाता तोड़ती जा रही हूँ,
तुम्हारी ये कैसी जिद्द है
या कि कोई अहम् है,
क्यों कटघरे में अक्सर खड़ा कर देते हो"
बहुत मर्मभेदी बात कही आपने
शब्दों के तीर
जाने -अनजाने
देते हैं मन को चीर
बीत जाते दिन
सूखते न घाव
और होते हरे
वक़्त की मार से
ह्रदय के गहन भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति...
thisis true (jban se nikle huye shabd or kmaan se nikla teer kabhi wapas nahi hota)..sach hi likha hai...................jai hind jai bharat
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
तुम्हारी ये कैसी जिद्द है
या कि कोई अहम् है,
क्यों कटघरे में अक्सर खड़ा कर देते हो
जाने किस बात की सज़ा देते हो,
जानते हो न
कमान से निकले तीर वापस नहीं होते,
वैसे हीं
ज़ुबान से किये वार वापस नहीं होते !
जुबान से किये वार ज्यादा दूर तक घाव करते है , मार्मिक एवं सटीक प्रस्तुति के लिए बधाई भी धन्यवाद भी
क्यों कटघरे में अक्सर खड़ा कर देते हो
जाने किस बात की सज़ा देते हो,
जानते हो न
कमान से निकले तीर वापस नहीं होते,
वैसे हीं
ज़ुबान से किये वार वापस नहीं होते !
kya baat hai sahi kaha aapne
sundr bhavon se bhari kavita
बहुत गहरे भाव संजोये मर्मस्पर्शी कविता.
काश कि इंसान बोलने से पहले सोच ले
कि वो क्या बोलने जा रहा है..
कुछ नापे तोले खुद को
कुछ शब्दों को
उनसे जुडी भावनाओं को भी
क्यूँ कि शारीरिक चोट का इलाज़ है
लेकिन शब्दों की मार पर
मरहम भी नहीं लगाया जा सकता है !!
kmaan se nikle hue teer wapas
nahin hote
vaese hee zabaan se nikle waar
vapas nahin hote
sachchaaee ko bayaan kartee huee
kavita hai . badhaaee
सटीक और सार्थक
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